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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘यह लीजिए।’ दीपक अपनी असली सीट से उठा और लिली के समीप जाकर उसे मैगजीन भेंट की। लिली ने कांपते हाथों से मैगजीन ले ली। दीपक मुस्कराता हुआ अपनी सीट पर आ बैठा। लिली के चेहरे पर क्रोध की रेखाएं भी उतनी ही सुंदर जान पड़ती जितनी प्रसन्नता की।

गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी और दो यात्री उस डिब्बे में आ बैठे। लिली की जान में जान आई।

पौ फट रही थी। अंधकार धीरे-धीरे विलीन हो रहा था। लिली ने अपना सामान संभालना आरंभ कर दिया। दीपक अपने सहयात्रियों के साथ बातचीत करने में लगा था।

घड़ी ने आठ बजाए और गाड़ी बंबई सेंट्रल के प्लेटफार्म नंबर छः पर आकर रुकी। ‘कुली, कुली’ की आवाजें चारों ओर गूंज उठीं।

थोड़ी ही देर में दोनों अपना-अपना सामान उठाए स्टेशन से बाहर खड़े थे। दीपक खड़ा देखता ही रह गया।

‘टैक्सी साहब?’

‘ऊं? हां लगा दो सामान। देखो.... जेब से सेठजी का पता निकालते हुए दीपक बोला, कॉलेज स्ट्रीट तक जाना है। माटुंगा, कोठी नं. 115।’

‘अच्छा साहब, चलिए।’ और टैक्सी माटुंगा की ओर चल दी।

दीपक पहली बार ही बंबई आया था, फिर भी उसे सेठ साहब की कोठी ढूंढने में कोई कठिनाई न हुई। साधारण-सी पूछताछ के बाद वह उनकी कोठी पर पहुंच गया।

उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, कोई न था। वह सीधा सामने खुले हुए कमरे में प्रविष्ट हुआ। यह ड्राइंगरूम था। प्रवेश करते ही उसके पैरों के नाचे से मानों जमीन खिसक गई और वह घबराया हुआ देखता का देखता ही रह गया। लिली सामने खड़ी थी। लिली उसे देखते ही चिल्लाई-

‘तुम मेरा पीछा करते हुए यहां तक आ पहुंचे!’

‘तो क्या यह सेठ श्यामसुंदर.....।’

‘हां, हां उन्हीं का मकान है। आप जैसे लोगों को किसी के सूटकेस या बिस्तर से पता नोट करते क्या देर लगती है?’ वह आवेश में बोल रही थी, ‘कुशलता चाहते हो तो यहां से निकल जाओ।’

‘यह शोर कैसा?’ दूसरे कमरे से किसी की आवाज आई।

‘डैडी, देखिए ना यह साहब....।’

‘हैलो दीपक! तुम कब आए?’ सेठ जी ने कमरे से निकलते ही पूछा। ‘अभी फ्रंटियर से।’

‘लिली भी तो इसी ट्रेन से आ रही है, परंतु तुम्हारा परिचय नहीं हुआ। यह है मेरी इकलौती बच्ची, लिली। सेठ साहब ने लिली के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, और यह हैं दीपक, जिनके यहां हम चंद्रपुर में एक रात रुके थे।’

‘नमस्ते। बहुत प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।’ दीपक ने सस्मित कहा।

लिली का चेहरा पीला पड़ रहा था। वह इस प्रकार मौन खड़ी थी मानों उसके मुंह को ताला लगा दिया गया हो। दीपक के होंठों पर एक मुस्कराहट थी।

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