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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘किस गहरे विचार में डूबे हो शंकर? मैं तुम्हारे पास चलकर आई हूं।’

‘बहुत-बहुत धन्यवाद।’

‘देखो, लैंप बुझा दो, रोशनी मेरी आंखों को काटती है।’ लिली ने अंगड़ाई लेते हुए कहा।

शंकर गंभीर आवाज में बोला, ‘लिली तुम भूल कर रही हो कि तुम एक विवाहिता स्त्री हो और वह भी मेरे एक प्रिय मित्र की पत्नी।’

‘मैं जानती हूं। परंतु कहते हैं न कि प्रेम और युद्ध के मैदान में सब कुछ उचित होता है।’

शंकर ने कोई उत्तर न दिया और उठकर दरवाजे के पास जाकर खड़ा हुआ। वह पर्दा हटाकर देखने लगा। लिली उठी और उसके पीछे जा खड़ी हुई।

‘देख क्या रहे हो.... बरसात की छींटे, तूफान, बादल की गरज। क्या तुम्हारे हृदय में भी तूफान-सा उठ रहा है? शंकर इन साधारण सामाजिक नियमों के कारण अपने अरमानों की हत्या न करो। मेरे पास आओ....।’ लिली ने यह कहकर अपनी दोनों बांहें शंकर के गले में डाल दीं।

शंकर ने बाहर देखा। बिजली चमकी और बादल जोर से गरजा। दूसरे ही क्षण उसने आवेश में आकर कसकर एक तमाचा लिली के गाल पर जड़ दिया। फिर बोला, ‘लिली मुझे क्षमा करना।’

शंकर ने अपना हाथ छुड़ाया और बाहर निकल गया। लिली कुछ समय तक अवाक् खड़ा रही.... यह उसने क्या किया... यौवन के नशे में वह अपने आपको भूल गई। शंकर की उंगलियों के निशान उसे गालों पर उभर आए थे और वह मूर्छित होकर गिर पड़ी।

होश आया तो वह उठी और बाहर शंकर को देखने लगी। वर्षा पहले से कुछ कम हो चुकी थी परंतु अभी तक थमी न थी। वह बरामदे में आई उसने देखा कि शंकर बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा बारिश में भीग रहा है। वह दबे पांव उसके पास पहुंची और धीरे-से बोली, ‘यह क्या कर रहे आप! उठिए, कहीं सर्दी न लग जाए।’

लिली ने हाथ का सहारा देते हुए उसे उठाया और साथ कमरे में ले गई। रोशनी में उसने देखा,,, शंकर का चेहरा पीला पड़ गया था और उसके दाएं हाथ से खून बह रहा था। जैसे किसी पत्थर से कुचला गया हो। लिली ने यह देखते ही कहा, ‘यह आपने क्या किया! अपराधिनी तो मैं हूं, दंड मुझे मिलना चाहिए!’ उसने शंकर का घायल हाथ चूमा और गालों से लगाकर रोने लगी।

‘लिली, यह हाथ आज तुम पर उठा। मैं बहुत लज्जित हूं।’

‘मैं आपका यह तमाचा जीवन भर न भूलूंगी। इसने मेरी आंखों से पर्दा हटा दिया और मैं मनुष्यता का मूल्य समझ सकी।’

लिली उठी और स्प्रिट की बोतल तथा रुई ले आई। घायल हाथ पर स्प्रिट लगाकर उसे बांधने लगी। जब वह पट्टी बांध रही थी तो उसने शंकर की ओर देखा। वही पीला चेहरा अब कुछ लाल हो चला था, लिली मेरे पास आओ। वह धीरे-धीरे सिर झुकाए उसकी ओर बढ़ी। शंकर कह रहा था-

‘तुम्हें मुझसे कितनी सहानुभूति है और मैं तुम्हें अच्छा भी लगता हूं परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि तुम मुझे इतना गिरा हुआ समझो। मेरा तुम्हारे साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना तो एक प्राकृतिक बात थी।’

लिली सब सुनती रही। उसकी आंखों में आंसू थे। शंकर ने उसके आंसू पोंछते हुए कहा, ‘यदि तुम्हें अब भी मुझसे प्रेम है तो आओ, अपने भाई के गले लग जाओ।’

लिली शंकर के गले से लगकर फूट-फूटकर रोने लगी। शंकर उसे बालकों की भांति प्यार करता हुआ बोला, ‘देखो अब तुम मेरे कितने समीप हो और मैं तुम्हें प्यार भी कर रहा हूं। परंतु कितना अंतर है दोनों में। एक मैं ईर्ष्या और पतन और दूसरे में पवित्रता और आत्मिक शांति।’ कहते-कहते शंकर की आंखों से भी दो आंसू टपक पड़े।

‘आपने मुझे अंधेरे गड्ढे से निकालकर प्रकाश के मार्ग पर डाल दिया। सचमुच आप मनुष्य नहीं, देवता हैं।’

‘लिली, मुझे देवता न बनाओ। नहीं तो मैं मनुष्य के दुःख-दर्द न समझ सकूंगा।’

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