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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘आप इस तूफानी रात में अकेली छोड़कर न जाइए।’

‘क्यों?’

‘मुझे डर लगता है।’

‘अभी तो तुम कह रही थीं कि तुम किसी से नहीं डरती।’

‘वह मेरी भूल थी। भगवान के लिए आप मुझे इस प्रकार अकेली छोड़कर न जाइए, नहीं तो मैं....।’

‘नहीं तो क्या होगा?’

‘नहीं तो.... नहीं तो... कुछ नहीं। ऐसे ही पड़ी चीखूंगी।’

‘अजीब तुम्हारे कहने का ढंग है। चलो, अंदर चलो।’

शंकर ने बरसाती उतार दी और लिली के पीछे-पीछे कमरे में आ गया। लिली अपने कमरे में पलंग पर अकेली लेटी थी। कमरे की खिड़की हवा से बार-बार खुल जाती और उसके किवाड़ जोर-जोर से बजने लगते। लिली की आंखों में नींद न थी। उसके हृदय में भी एक तूफान-सा उठा हुआ था और वह बार-बार लेटे हुए अपने बिस्तर पर करवटें ले रही थी।

खिड़की के किवाड़ एक बार फिर हवा से खुल गए। लिली अपने बिस्तर से उठी और खिड़की बंद कर दी। कुछ देर वह वहीं खड़ी रही। फिर धीरे-धारे दबे पांव पास वाले कमरे के दरवाजे कर गई और कान लगाकर सुनने लगी। एकदम सुनसान था। उसने धीरे-से किवाड़ खोलने का प्रयत्न किया। दरवाजा अंदर से खुला था। उसने सोचा कि शायद शंकर ने जान-बूझकर खुला छोड़ा है। वह धीरे-धीरे बढ़ती हुई शंकर के बिस्तर के समीप पहुंची। वह सो रहा था। लिली ने कोमल स्वर में पुकारा, ‘शंकर! शंकर!’

शंकर आवाज सुनते ही घबराकर उठा।

‘कौन है?’

‘मैं लिली।’

‘क्यों, क्या बात है? सब कुशल तो है?’

‘सब ठीक है।’

‘फिर तुम इतनी रात को यहां....।’

‘तो क्या मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’

‘परंतु....।’

‘मैं जानती हूं तुम पूछोगे कि क्यों? मैं अब तुमसे कुछ नहीं छिपाऊंगी। शंकर मैं तुमसे प्रेम करने लगी हूं। चाहती थी कि इस रहस्य को तुम पर प्रकट करूं। मेरा अनुमान है कि तुम भी मुझसे प्रेम करते हो.... परंतु तुम्हारे मौन ने तुमसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं बंधाई।’  

शंकर चुपचाप सुन रहा था और लिली कहे जा रही थी-

‘मैं जानती हूं कि तुम कर्त्तव्य और समाज के भय से यह साहस न कर सके। परंतु आज लज्जा और भय की जंजीरें तोड़ती हुई मैं तुम्हारे पास आ गई हूं।’

लिली कहते-कहते शंकर के पास बैठ गई। शंकर ने दियासलाई सुलगाई और लैंप जलाने लगा। लिली ने उसका हाथ रोकते हुए कहा, ‘इसकी क्या आवश्यकता है?’

‘केवल मन की तसल्ली के लिए। मैं कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा।’

लैंप जलते ही कमरे में प्रकाश हो गया। शंकर ने ध्यान से लिली को देखा, लिली के मुख पर एक अजीब-सी मादकता छाई थी।

‘क्यों शंकर, अब तो विश्वास हुआ कि मैं ही हूं?’ लिली ने शंकर के कुछ और पास आते हुए कहा। उसकी आंखें लाल थीं मानों नशे में डूबी हों। शंकर अभी तक चुपचाप उसकी ओर देख रहा था।

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