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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘ऊं हूं।’ नाक चिढ़ाकर लिली ने कहा।

‘अच्छा लिली, मैं चलता हूं। वर्षा तेजी से हो रही है। ऐसा न हो कि....।’

‘ऐसी भी क्या जल्दी है! अभी आए और अभी चल दिए? बैठो कोई नई गप्प सुनाओ, कुछ समय ही कटेगा।’

‘मुझे लौटकर भी जाना है।’

‘अच्छा खाना खाकर चले जाना।’

‘परंतु...।’

‘मैं किंतु-परंतु कुछ नहीं सुनूंगी। आओ, इतनी देर में ताश की एक बाजी ही हो जाए।’

‘तुम्हारे सामने न करना भी कितना कठिन है।’ यह कहकर शंकर बैठ गया और लिली भागकर ताश ले आई। दोनों खेलने लगे। अचानक उसने ताश के पत्ते फेंकते हुए कहा, ‘लिली बस करो, नौ बज गए।’

‘इतनी जल्दी!’ यह कहकर लिली ने पत्ते संभाले और हरिया को शीघ्र खाना लाने के लिए कहा। दोनों बैठकर खाना खाने लगे। खाना खाते-खाते लिली बोली, ‘आप कितने अच्छे हैं! आपने तो यहां आकर मेरा जीवन ही बदल डाला। लिली टकटकी बांधकर शंकर के मुख की ओर देख रही थी।’

‘तो क्या सचमुच तुम मुझे एक अच्छा आदमी समझती हो?’

‘समझती नहीं, समझ चुकी हूं।’

‘और यदि तुम्हें समझने में धोखा हुआ हो तो?’

‘आप अच्छे या बुरे कैसे भी हों, परंतु मेरे लिए तो अच्छे आदमी है।’

‘हो सकता है।’ शंकर ने धीरे से कहा और चुपचाप खाना खाने लगा। कुछ समय तक दोनों मौन रहे। लिली ने मौन भंग करते हुए कहा, ‘यदि दीपक आ जाए तो हमें इस प्रकार देखकर जल उठे।’

‘भला क्यों?’

‘जिसके भाग्य में जलना ही हो वह भला प्रसन्नता का मूल्य क्या जाने!’

‘यह कोई बात नहीं। दीपक की जगह मैं होऊं तो मैं भी जल उठूं।’

‘तो क्या आप भी ऐसा ही समझते हैं?’

‘क्यों नहीं? प्रायः पुरुष यह सहन नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी उसकी अनुपस्थिति में उसके मित्रों के साथ इस प्रकार हंसे-बोले।’

‘परंतु वह आपको पराया नहीं समझते।’

‘यह तो मेरा सौभाग्य है। अच्छा छोड़ो ऐसी बातों को, जल्दी खाना खा लो, नहीं तो पीछे रह जाओगी।’

लिली शंकर की बातें सुनती जाती थी और एकटक देखे जा रही थी। ‘मेरी ओर क्या देखती हो, खाना खाओ।’

दोनों फिर से खाना खाने लगे। थोड़ी-थोड़ी देर में दोनों सिर उठाकर एक-दूसरे को देख लेते। जब नजरें आपस में टकराती तो दोनों मुस्करा देते।

खाना खाने के बाद शंकर ने जाने की आज्ञा मांगी। वर्षा अब भी बहुत जोर की हो रही थी। लिली बोली, ‘इतनी बारिश में किस प्रकार जाओगे?’

‘प्रतीक्षा करते-करते दस बज गए। यदि वह बंद न हो तो क्या किया जाए?’

‘तो रात को यहीं रह जाइए।’

शंकर ने देखा कि लिली की आंखों में विनम्र अनुरोध भरा था। वह बोला, ‘नहीं लिली, मुझे जाना है। अच्छा नमस्ते। हरिया से कहो कि हवेली का दरवाजा बंद कर ले।’

शंकर यह कहता हुआ बाहर निकल गया। लिली देखती रही। बाहर जोर से बादल गरजा। शंकर बरामदे में पहुंचा और उसने बरसाती उठाई। लिली भागती हुई आई और निःसंकोच उससे लिपट गई। शंकर उसे अपने शरीर से अलग करते हुए बोला, ‘क्यों, क्या कर रही हो लिली?’

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