ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
शंकर यह सुनकर कुछ सहम-सा गया। फिर प्रयत्न करके उसने कहा, ‘लिली एक बात पूंछू?’
‘पूछो।’
‘मैं कई दिन से देख रहा हूं कि तुम बहुत उदास रहती हो।’
‘नहीं तो।’
‘तुम मुझसे कुछ अवश्य छिपा रही हो। तुम्हारे चांद से मुख पर उदासी की छाया मुझे धोखा नहीं दे सकती।’
यह सुनते ही लिली की आंखों में आंसू उमड़ आए और वहां से उठकर कमरे में चली गई। कमरे में लिली बिस्तर पर औंधी लेटी चादर से लिपटकर रो रही थी। शंकर उसके पास जाकर बोला, ‘तुम रोने क्यों लगी?’
‘कुछ नहीं। चलिए बाहर चलें।’
‘क्या करेंगे आप पूछकर?’
‘आपकी इच्छा। मैंने तो एक हितैषी के नाते पूछा था। अपने आंसू पोंछ डालिए, दीपक भैया आने वाले होंगे।’ शंकर ने जेब से रूमाल निकालकर लिली की ओर बढ़ाते हुए कहा।
‘मैं आ गया हूं।’
दीपक की आवाज सुनकर लिली कांप उठी। रूमाल उसके हाथ से गिर गया। शंकर ने नीचे झुककर रूमाल उठा लिया और दीपक की ओर देखकर बोला, ‘आओ दीपक, आज बहुत देर से आए!’ शंकर मुस्करा रहा था। लिली ने देखा कि शंकर के मुख पर किसी प्रकार की घबराहट न थी। न उसका चेहरा लिली की भांति पीला ही पड़ा था। उसके चेहरे पर वही आभा थी जो पहले थी। दीपक ने लिली को तिरछी नजर से देखा। लिली सहम गई। उसे लगा मानों दीपक उसे शंकित होकर देख रहा है।
‘यह सहानुभूति और रोने का नाटक कैसा हो रहा था?’दीपक ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।
‘ऐसे ही कुछ बीती बातें याद याद करके रोने लगीं।’ शंकर ने उत्तर दिया।
‘क्यों लिली, क्या याद आ रहा है जो....’
‘कुछ नहीं। इन्होंने घुड़सवारी की बात छेड़ी तो मुझे वे दिन याद आ गए जब मैं घुड़सवारी किया करती थी।’ लिली ने बात काटते हुए कहा। शंकर उसकी ओर आश्चर्य भरी दृष्टि से देखने लगा।
‘तो तुम प्रसन्नता से यहां भी सवारी कर सकती हो, किसी ने रोका तो नहीं है।’
‘अवश्य। दीपक भैया, मैं तुम्हें कहने ही वाला था कि इससे लिली का मन भी लगा रहेगा?’
‘परंतु तुम्हें यह कैसे पता चला कि लिली उदास है?’
‘अनुभव किया है परंतु निश्चय से नहीं कह सकता।’
‘अच्छा तो फिर सवारी का प्रबंध हो जाए।’
‘बहुत अच्छा।’
‘परंतु दो नहीं, तीन घोड़ों का। मैं भी चलूंगा।’
‘तुम तो जा ही रहे हो। तुम्हारे बिना भला लिली किस प्रकार जाएगी? अच्छा अब मैं चलता हूं, देर हो रही है।’
‘खाना बिल्कुल तैयार है।’
‘फिर कभी सही। अब आज्ञा चाहता हूं।’
‘तुम्हारी इच्छा।’ दीपक ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा और शंकर चला गया।
‘कुसुम कहां है?’
‘सो रही है।’
‘लिली!’
‘जी!’
‘अपना दुखड़ा सुनाकर उसकी सहानुभूति का पात्र बनना मूर्खता है।’
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