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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

11

सारे चंद्रपुर में आज प्रसन्नता का दिन था। जमींदार दीपक की हवेली फानूसों और फूलों से सजी थी और एक अच्छी खासी दावत का प्रबन्ध किया गया था। दीपक आज प्रसन्नता से फूला न समाता था। आज वह एक पुत्री का पिता बन गया था। नाचने-गाने के लिए पास के गांव से भांड बुलाए गए थे। लोग कह रहे थे कि एक लड़की के पैदा होने पर इतनी खुशी! परंतु दीपक के हृदय को टटोलकर कोई देखता तो जानता कि वह कितना प्रसन्न था। दावत समाप्त होते ही वह लिली के कमरे में पहुंचा। लिली बिस्तर पर लेटी थी। नन्ही बालिका भी समीप ही लेटी हुई थी। लिली चुप थी। दीपक उस नन्हीं-सी बालिका को गोद में लेकर प्यार करने लगा। कभी वह उसे और कभी उसकी मां को देखता था। बालिका बिल्कुल अपनी मां की तस्वीर थी।

दिन बीतने लगे और बालिका बड़ी होने लगी। दोनों का बहुत-सा समय उसके साथ ही बीतने लगा। उन्होंने उसका नाम कुसुम रखा। चंद्रपुर आने पर दीपक का अपना काम बहुत बढ़ गया था। वह सोचता कि आज यदि पिताजी जीवित होते तो वह देखकर कितने प्रसन्न होते परंतु शायद लिली को देखकर वह प्रसन्न न होते। यह सोचते ही वह शोकमग्न हो जाता। लिली के हृदय से अभी तक पिछली बातें न निकल पाईं।

एक दिन संध्या के समय लिली अपने बरामदे में बैठी हुई कुछ बुन रही थी। पास ही कुसुम खिलौनों से खेल रही थी। हवेली का दरवाजा खुला और दीपक एक नवयुवक से साथ भीतर आया। लिली कुर्सी पर से उठी और अपनी साड़ी का पल्ला संभालकर अंदर जाने लगी। दीपक ने आवाज दी और वह वहां रुक गई। दीपक ने सामने आते ही नवयुवक से कहा, ‘यह है मेरी श्रीमती लिली।’

‘नमस्ते।’ नवयुवक ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘बहुत प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।’

‘और लिली, यह है मिस्टर शंकर लाल जिन्होंने हमारी निचली जमीन किराए पर ली है।’

लिली ने मौन रह हाथ जोड़कर नमस्ते का उत्तर दिया। कुसुम दौड़ती हुई आई और दीपक की टांगों से लिपट गई। दीपक ने उसे प्यार से गोदी में उठा लिया और कहा, ‘ओहो, मैं तो भूल ही गया।’ और शंकर लाल को संबोधित करके उसने कहा, ‘और यह है मेरी बेटी कुसुम, बड़ी ही नटखट!’

शंकर लाल ने उसे दीपक से लेकर अपने हाथों में उठा लिया और कहा, ‘बहुत अच्छी लड़की है, अपनी मां पर गई है।’

‘अच्छा शंकर लाल, तुम बैठो। मैं मुंह-हाथ धो लूं।’ लिली चाय का प्रबंध करो।

‘चाय तैयार है। अभी मंगाए देती हूं।’

दीपक अंदर चला गया और लिली ने हरिया को आवाज देकर चाय लाने को कह दिया। दोनों मौन बैठ गए।

‘तो आपने यह जगह किसके लिए ली है?’

‘अपने लिए।’

‘आप क्या करते हैं?’

‘मैं घोड़े साधता हूं और उनका व्यापार भी करता हूं। रेसकोर्स के तथा दूसरे घोड़ो को खुली हवा में साधने के लिए एर ब्रांच ऑफिस खोला है। वैसे काम बंबई में है। हम एक ऐसा स्थान खोज रहे थे जहां खुले मैदान और पहाड़ हों। दोनों बातें यहां मिल गई।’

‘अच्छा तो यह बात है। किसी समय मुझे भी घुड़सवारी और घुड़दौड़ का बड़ा शौक था। जब मैं कहीं पहाड़ पर जाती तो जी भरकर सवारी करती थी।’

‘तो अब वह समय कहां गया है? चंद्रपुर में भी तो सवारी के लिए उचित स्थान है।’

‘परंतु अब तो सांसारिक धंधों में फंस गए।’

‘यह तो सबके साथ ही होता है। दिल को जवान रखना या बूढ़ा बना देना अपने ही अधिकार में तो है।’

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