ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘मेरी जेब में दियासलाई थी। देखता हूं।’ कहकर विष्णु ने अपनी जेब टटोलनी शुरु की और दियासलाई निकालकल जला दी। प्रकाश होते ही लिली की चीख निकल गई। सामने दीपक चमड़े का हंटर लिए खड़ा था। लिली उसे देखते ही आश्चर्यचकित हो गई और उल्टे पैर लौट पड़ी। उसके कानों में हंटर की आवाज आ रही थी और साथ ही दीपक के मुंह से निकलती हुई गालियां।
‘नमकहराम... कमीने।’
लिली भागते-भागते अपने कमरे में पहुंची। उसके सब कपड़े कीचड़ में लथपथ थे। वह भयभीत थी। बार-बार उसके सामने दीपक की भयानक आकृति आ जाती। जैसे वह उसकी ओर बढ़ा आ रहा हो और मानों हंटर उसके शरीर को उधेड़कर रख देगा।
थोड़ी ही देर बाद दीपक कमरे में आया। पैरों की आहट सुनते ही लिली दरवाजे के पीछे छिप गई। आते ही उसने बत्ती जलाई और लिली को पुकारा। लिली डरती-डरती कुछ सहमी-सी दरवाजे के पीछे से निकली। दीपक बोला, ‘क्या इससे अधिक कोई पतित मार्ग न था?’
लिली मौन खड़ी रही। दीपक ने फिर कहा, ‘जी चाहता है कि इसी हंटर से तुम्हारी चमड़ी उधेड़ दूं। परंतु क्या करूं, विवश हूं! यदि तुम मेरे बालक की मां बनने वाली न होती तो....।’
लिली रो पड़ी। दीपक क्रोध में भरा बाहर निकल गया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया।
सारी रात दीपक लौटकर न आया। जब पौ फटी तो उसने आकर कमरे का दरवाजा खोला। लिली ऐसी ही बेसुध भूमि पर सो रही थी। दीपक उसे इस प्रकार देखकर क्षण भर घबराया, परंतु नाड़ी देखकर उसे धैर्य हुआ। उसने दोनों हाथों में लिली को उठाया और पलंग पर लिटा दिया। लिली की आंखें खुल गई। उसने जब दीपक को इस प्रकार देखा तो शरमाकर आंखें नीची कर लीं। दीपक ने प्यार से उसे छाती से लगा लिया। लिली बालकों की भांति फूट-फूटकर रोने लगी।
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