ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘मालिक मैं।’
‘कौन तुम? विष्णु! यहां क्या कर रहे हो?’
‘मैंने सोचा कि रात को बाहर पानी लेने कौन जाए। सोचा कि सीढ़ियों से उतरकर नदी में से भर लूं।’
‘यदि जरा पांव फिसल जाता तो सीधे स्वर्ग की सैर करते। तुम्हारा दिमाग भी पहलवानी करते-करते मोटा हो गया है। देखो इसे बंद कर दो।’
‘कल इन तख्तों में एक कुण्डी लगवा देंगे।’
यह सुनते ही विष्णु ने तख्ते बंद किए और दीपक लिली को साथ ले अपने सोने वाले कमरे में चला गया। लिली ने कहा, ‘ इसमें इतना पानी तो नहीं कि कोई फिसल जाए।’
‘अभी तो नहीं परंतु आगे चलकर बरसात में देखना, ये सब सीढ़ियां पानी में बिल्कुल डूब जाएंगी।’
‘आपने जब विष्णु से कहा तो मैं डर-सी गई।’
‘वह तो मैं ऐसे ही डरा रहा था ताकि फिर कभी वहां जाने का साहस न करे।’
‘कितने अच्छे हैं आप!’
‘यह तुमने अनुभव किया। अनोखी बात है।’ दीपक ने बिस्तर पर लेटते हुए उत्तर दिया। लिली दीपक के पास आकर लेट गई और अपना सिर दीपक की छाती पर रख दिया। उसके बटनों को खोलते और बंद करते हुए बोली, ‘यदि सवेरे का भूला सांझ को...।’
‘ठीक है लिली।’ दीपक ने बात काटते हुए कहा, ‘ऐसी बात न करों, मेरे हृदय को दुःख पहुंचता है।’ दीपक ने लिली को प्यार से अपनी बांहों में ले लिया। लिली उसके और समीप आ गई और उसकी आंखों में आंखें डालकर देखने लगी। बोली, ‘कैसे लग रहे हैं मेरे होंठ?’
दीपक के आश्चर्य का ठिकाना न । उसने कहा, ‘नटखट कहीं की!’ और लिली को अपने हृदय से लगा लिया।
‘अच्छा लिली, अब तुम आराम करो।’ दीपक ने लिली का हाथ दबाते हुए कहा और वह उठकर अपने बिस्तर पर जा लेटी। दीपक भी आंखें बंद करके सोने का प्रयत्न करने लगा। वह हैरान था कि आज लिली को क्या हो गया है, इतनी प्रसन्न तो वह विवाह के बाद आज ही हुई है।
कुछ देर बाद जब लिली को विश्वास हो गया कि दीपक सो गया है तो वह चुपके से उठी। उसने समीप रखी मेज के नीचे से एक अटैची निकाली जिसमें शायद उसके गहने इत्यादि थे। धीमे-धीमे पैर बढ़ाती हुई वह दरवाजे के पास जा पहुंची। उसने धीरे-से किवाड़ खोले और बाहर निकल गई। भयानक काली रात थी। हवा बहुत तेज चल रही थी। घास के खेत सांय-सांय कर रहे थे। हौदी के पास विष्णु पहले से ही बैठा था। उसने तख्ता उठाया और लिली को साथ लेकर नीचे उतर गया। उसने तख्त उसी प्रकार बंद कर दिया। हौदी के अंदर बहुत अंधेरा था। विष्णु ने अपना हाथ फैला दिया और लिली उसके हाथ का सहारा लेकर उसके साथ-साथ आगे बढ़ने लगी। नदी का पानी कुछ फुट की ही दूरी पर था, परंतु वहां तक पहुंचने के लिए भी भयानक दलदल में से होकर जाना था। वहां धूप न पहुंचने के कारण बहुत दुर्गंध थी। लिली ने अपनी नाक बंद कर ली और विष्णु से पूछा, ‘सब तैयार है?’
‘जी, मालिकन, सड़क पर घोड़ागाड़ी तैयार है और आप आसानी से सवेरे चार बजे की गाड़ी पकड़ सकती हैं।’
‘अब हम बाहर किस प्रकार निकलेंगे? अंधेरा बहुत है।’
‘अब घबराने की बात ही क्या है? नदी के किनारे तक तो पहुंच गए। पहले पत्थर का सहारा लेकर मैं ऊपर चढ़ता हूं। फिर आपको पकड़कर खींच लूंगा।’
‘यह शोर कैसा है?’
‘ऐसे ही हवा के तेज चलने से नदी की रेत उड़ रही है और घास के खेत शोर मचा रहे है।’
‘इस अंधेरे में कहीं पांव न फिसल जाए!’
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