ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
दीपक अब लिली को संदेह और घृणा की दृष्टि से देखने लगा। लिली भी यह बात ताड़ गई। अब उसे दीपक से डर लगने लगा। जब वह अपनी तीखी दृष्टि लिली पर डालता तो वह सहम जाती। लिली सोचती कि अब उसके लिए दो ही मार्ग हैं। आत्महत्या अथवा अपेक्षा। दीपक के हृदय में अब यह भय था कि उसकी अनुपस्थिति में लिली कहीं चली न जाए। उसने हरिया और चौकीदार को समझा कर चौकन्ना कर दिया।
विष्णु हवेली के चौकीदार का भाई था। उसे पहलवानी का बहुत शौक था। वह प्रायः अपने भाई से मिलने के लिए आया करता था और कई-कई दिन वहीं पड़ा रहता। जब कभी भी वह आता अपने साथ फल आदि ले आता, कुछ अपने भाई के लिए और कुछ उसके स्वामी दीपक के लिए। इन दिनों जब भी वह भीतर फल देने जाता तो लिली का उससे सामना होता और वह फलों के बदले उसे पुरस्कार दे दिया करती। वह पुरस्कार पाकर बहुत प्रसन्न होता और अपनी फटी-फटी नजरों से लिली को देखा करता। लिली उसे इस प्रकार निहारते देख कर मुस्करा देती और वह उसे देखकर फूला न समाता।
नित्य की भांति एक दिन जब विष्णु ने फलों को टोकरा लिली के सामने रखा तो लिली ने मुस्कराते हुए उसकी हथेली पर दस रुपये का नोट रख दिया। वह आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। आज एक के स्थान पर दस क्यों? लिली उसे आश्चर्यचकित देखकर बोली, ‘तुम्हारा इनाम! तुम बहुत अच्छे हो।’
विष्णु फूला न समाया और दस का नोट पल्ले से बांध वापस जाने लगा। जब वह दरवाजे तक पहुंचा तो लिली ने उसे आवाज दी-
‘क्यों विष्णु, मैं तुम्हें कैसी लगती हूं?’
लिली का यह एक अनोखा प्रश्न था जिसे सुनकर विष्णु धर्म-संकट में पड़ गया। कुछ देर चुप रहने के बाद बोला - ‘मैं कुछ समझा नहीं बीबीजी।’
‘मेरा मतलब यह है कि तुम्हें मेरा स्वभाव पसंद है?’
‘क्यों नहीं?’ वह हंसते हुए बोला, ‘आप जैसी देवियां भला किसे अच्छी नहीं लगतीं?’
‘तो तुम मेरा एक काम करोगे?’
‘मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगा कि आपके किसी काम आ सकूं।’
‘तो मैं तुम पर विश्वास करूं?’
‘यह कहने की क्या आवश्यकता है? आप चिंता न करे।’
‘यदि तुम यह काम करो तो मैं तुम्हें एक सौ रुपया इनाम दूंगी।’
‘जान पड़ता है कि काम बहुत कठिन है जिसके लिए आप इतना अधिक इनाम....’
‘ठीक है, परंतु घबराने की कोई बात नहीं। आओ, अंदर आ जाओ।’ लिली यह कहकर कमरे के अंदर चली गई। विष्णु धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे कमरे में आया और जाकर निःसंकोच लिली के समीप ही बैठ गया। लिली ने उसके कान में कुछ कहा। पहले तो उसने सिर हिला दिया परंतु लिली के बहुत कहने पर उसने हां कर दी। थोड़ी देर तक वे इसी प्रकार बातें करते रहे। जाते समय लिली ने विष्णु के हाथ में दस-दस के दो नोट रखे और बोली, ‘बाकी इनाम काम हो जाने पर।’
दीपक संध्या को घर लौटा। अंधेरा बहुत हो चुका था। कपड़े उतार कर उसने लिली के साथ खाना खाया। लिली आज प्रसन्न दिखाई देती थी। जब वह हवेली के दरवाजे बंद करने गया तो लिली भी उसके साथ थी। उसने ताले लगाए और चाबियों के गुच्छे को बहुत ही सावधानी से हाथ में लेकर कमरे की ओर जाने लगा। लिली ने अपना हाथ दीपक की कमर में डाल दिया। दीपक जब बरामदे की सीढ़ियां चढ़ने लगा तो उसने देखा कि कोने वाली हौदी का दरवाजा खुला है। वह उल्टे पैर लौटा, ‘न जाने कितनी बार इन लोगों से कहा है कि दरवाजा बंद रखा करें परंतु कोई सुनता ही नहीं’, यह कहते-कहते उसने दरवाजे का पल्ला उठाया। उसे ऐसा जान पड़ा जैसे हौदी की सीढ़ियों पर कोई बैठा हो। उसने आवाज दी, ‘कौन है?’
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