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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘इसीलिए तो कहती थी कि यदि मैं प्रसन्न नहीं रह सकती तो किसी दूसरे की प्रसन्नता क्यों छीनूं! जीवन समाप्त हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा।’

‘मेरे जीवित रहते तुम ऐसा नहीं कर सकतीं। यह दूसरी बात है कि मैं कल इस संसार से... अच्छा जाने दो इन बातों को। तुम थकी हुई हो, सो जाओ।’ यह कहकर दीपक ने बत्ती बंद कर दी और सो गया।

सवेरा होते ही दीपक जल्दी से तैयार होकर अपने खेतों की ओर चला गया। उसने थोड़े ही दिनों में अपना सारा कारोबार अपने हाथों में ले लिया। नियमानुसार वह काम पर जाता, समय पर वापस आ जाता, परंतु लिली इस नए वातावरण के अनुकूल अपने आपको न बना पाती। क्या वह अपना सारा जीवन इसी प्रकार बिताएगी! बिता सकेगी वह? कहां बंबई की चमक-दमक, सखी-सहेलियों का मिलना-जुलना, कितना सुख भरा पड़ा था उस जीवन में! और इधर इस गांव का सूनापन... दीपक का प्रेम!

उधर दीपक के हृदय में लिली के लिए वही भाव थी। वह उसे प्रसन्न रखने का हर संभव प्रयत्न करता। कहते हैं कि मनुष्य एक समुद्र की भांति है जिसका जल लहरों के प्रवाह से दूर-दूर तक जाकर फिर तट से जा टकराता है।

लिली एक ऐसे प्रवाह में बह रही थी कि दीपक के उद्गारों को अनुभव भी न कर पाती। उसके हृदय में दीपक के लिए एक घृणा-सी पैदा होती जा रही थी और वह यही चाहती थी कि किसी प्रकार वह चंद्रपुर से निकल भागे।

रात आधी बीत चुकी थी। सब सो रहे थे। दीपक की आंख खुली तो उसने अंधेरे में ऐसा अनुभव किया मानों लिली अपने बिस्तर पर न हो। उसने दो-तीन बार लिली को पुकारा। कोई उत्तर न पाकर वह उठा और शय्या के पास जाकर देखा, लिली बिस्तर पर न थी। वह दरवाजे की ओर बढ़ा। किवाड़ खुले थे। इतनी रात को अकेली कहां गई होगी? यह सोचकर वह अपनी टार्च लिए मुंडेर की ओर हांफता उसके निकट पहुंचा। उसकी सांस जोर-जोर से चल रही थी। उसने अस्फुट स्वर में कहा, ‘लिली... इस समय...यहां... तुम क्या कर रही हो?’

‘नींद नहीं आ रही थी। हवा में बैठने के विचार से ऊपर चली आई।’

‘इतनी रात में! अनोखा स्वभाव है तुम्हारा। मेरे तो प्राण निकले जा रहे हैं।’

‘इसमें प्राण निकलने की क्या बात थी? मैं नदी में कूदने के लिए तो नहीं आई थी।’ उसने लापरवाही से उत्तर दिया।

दीपक को मानों किसी ने तमाचा मारा हो। धीरे-से बोला, ‘क्षमा करना, अभी भगवान ने इतनी शक्ति नहीं दी कि तुम यह कर सको और न ही अभी तुम जीवन से इतनी तंग आ गई हो?’

‘यह तुम कैसे जानते हो?’

इसलिए कि अभी मैं जीवित हूं। उसने उसी प्रकार अपनी बांहें लिली की कमर में डालीं और अपने साथ नीचे ले जाकर उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

‘लिली, तुम जानती हो कि मन व्याकुल क्यों होता है?’

‘मुझे जानने की आवश्यकता नहीं।’

‘जानने में हानि भी क्या है। लो सुनो, मैं बताता हूं। मां बालक का सिर चूमती है ताकि उसका जीवन बना रहे। पिता बालक का माथा चूमता है ताकि उसका यौवन बना रहे और वह उसका सहारा बन सके। मित्र और सहेलियां एक-दूसरे के गाल चूमते हैं ताकि मुख का सौंदर्य बना रहे और प्रेमी अपने प्रेमिका के होंठ चूमता है ताकि उसके यौवन का सारा माधुर्य वह चूस ले और उसके सहारे जी सके।’

लिली मौन थी। दीपक ने उसे धीरे-से झिंझोड़ते हुए कहा, ‘क्या सो गई?’

‘नहीं तो। ऐसे ही तुम्हारे बे-पैर को सुन रही थी।’

‘यह बे-पैर की नहीं, वास्तविकता है।’

यह कहकर दीपक उठा और अपने पलंग पर जा लेटा। उसे धीरे-धीरे अनुभव होने लगा कि लिली उससे घृणा करती है। उसके हृदय को ठेस लगी।

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