ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
10
संध्या का समय था। सूर्य अस्त होने ही वाला था। दूर पहाड़ों में उसकी किरणें फटती हुई सारे आकाश पर फैल रही थीं। ऐसा जान पड़ता था मानों आकाश पर आग-सी लग रही हो।
पहाड़ के ऊपर आने वाली एक छोटी सी सड़क पर एक व्यक्ति तेजी से चल रहा था। यह दीपक था, उसके कुछ पीछे लिली एक घोड़े पर बैठी धीरे-धीरे ऊपर की ओर जा रही थी। साथ ही दो-तीन घोड़ों पर सामान लदा था।
दीपक संतुष्ट था, मानों कोई बहुत बड़ी पहेली जीतकर पुरस्कार संभाले घर लौट रहा हो। बात ही ऐसी थी। उसके जीवन की पहेली तो यही थी... लिली।
और यही सोचते-सोचते वह हवेली पहुंच गया। मुनीमजी और हरिया दीपक और उसकी बहू को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। घर में और कोई न था, उन्होंने ही अपनी रीति के अनुसार लिली का स्वागत किया। चंद्रपुर की सबसे बड़ी हवेली बाहर से लिली को ऐसी जान पड़ी मानों कोई अस्तबल हो, परंतु जब भीतर गई तो उसके हृदय को कुछ संतोष हुआ। अंदर सब कमरे मॉडर्न फर्नीचर से सजे हुए थे। बैठने के कमरे में कालीन, सोफा, रेडियो आदि सब उपस्थित थे। सोने और बनाव-श्रृंगार के कमरों में भी प्रत्येक आवश्यक वस्तु रखी थी। मुनीमजी और हरिया सामान संभालने में लग गए। दीपक घोड़े वालों को किराया आदि देने में लग गया था। लिली धीरे-धीरे कमरे में से होती हुई पीछे मुंडेर पर जा खड़ी हुई और नीचे पहाड़ों की घाटियों को देखने लगी। हवेली के पीछे मुंडेर के नीचे एक छोटी-सी नदी बहती थी। लिली एकटक उसी ओर देख रही थी। अंधेरा बढ़ता जा रहा था। दीपक लिली को ढूंढता हुआ वहां आ निकला और मुस्कराते हुए बोला, ‘क्यों लिली, कैसा है यह स्थान?’
‘धीरे-धीरे पता चलेगा, अभी से क्या कह सकती हूं?’
‘परंतु फिर भी जो देखा है उसके बारे में तो कुछ धारणा होगी।’
‘जो देखा है, उसमें यह मुंडेर सबसे पसंद आई है।’ लिली ने कहा।
‘यह स्थान पिताजी ने संध्या समय बैठने के लिए बनवाया था। वह कहते थे कि यहां बैठकर जब वह यह नदी, अपने लहलहाते खेत और यह छोटी-छोटी दौड़ती पगडंडियां देखते हैं, तो उनके हृदय को संतोष-सा प्राप्त होता है। लिली, मेरा यह विश्वास है कि यह स्थान तुम्हारे हृदय को शांति प्रदान करेगा।’
‘परंतु मैंने तो किसी और विचार से ही इसे पसंद किया है।’
‘किस विचार से?’
‘मेरा हृदय शांति पा सके या न पा सके परंतु जीवन अवश्य....।’
‘वह कैसे? मैं भी तो सुनूं।’
‘यदि मैं कभी अपने जीवन से ऊब गई तो चुपके से यहां बैठी-बैठी नदी में कूद पड़ूंगी।’
‘तुम्हें संध्या समय ऐसी अशुभ बातें मुंह से न निकालनी चाहिए। चलो, अंदर चलो, अंधेरा हो रहा है।’
दोनों ने मुंह-हाथ धोकर कपड़े बदले। इतने में हरिया ने खाना तैयार कर दिया। दोनों मिलकर खाने बैठे। उसने लिली से पूछा, ‘क्यों, क्या बात है। बहुत उदास दिखाई देती हो?’
‘प्रसन्न होने की बात ही क्या है?’
‘नई जगह है ना, अभी तुमने चंद्रपुर में देखा ही क्या है। देखना, मैं तुम्हारा मन इस प्रकार लगाऊंगा कि तुम जाने का नाम भी न लोगी।’
‘जब मन ही न हो तो उसे तुम लगाओगे क्या?’
‘लिली, मेरे होते हुए तुम्हें इस प्रकार की बातें नहीं करनी चाहिए। शाम को मुंडेर पर भी तुमने ऐसी ही अजीब बात कह डाली थी, परंतु मैं मौन रहा। यदि मनुष्य चाहे तो प्रत्येक वातावरण में प्रसन्न रह सकता है।’
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