ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘यह तो मैं जानता ही हूं कि वह कितने दिनों बाद आया था। खैर, इस वाद-विवाद से क्या लाभ! मेरा दृष्टिकोण इतना संकीर्ण नहीं।’
‘तभी तो पीछा करते-करते सिनेमा तक पहुंच गए। यदि तुम्हारे हृदय में अभी इस प्रकार का संदेह है तो मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि हमारे भावी जीवन में क्या होगा?’
‘क्या होगा, वह मैं भली प्रकार जानता हूं, अब चलने की तैयारी करो।’
‘कहां?’
‘चंद्रपुर।’
‘कब?’
‘जितनी जल्दी हो सके।’
‘दो-चार महीने तो....।’
‘महीने नहीं, दिनों में।’
‘परंतु इतनी जल्दी क्या है?’
‘तुम्हें जल्दी नहीं तो मुझे तो है।’
‘और यदि मैं न जाना चाहूं तो...।’
‘इंकार सुनने की मुझे आदत नहीं, मेरा यह अंतिम निर्णय है।’
‘दीपक, मैं वहां अकेली किस प्रकार रहूंगी?’
‘मैं जो साथ हूं, तुम्हारा जी बहलाने के लिए।’
लिली ने बहुत चाहा कि वह बंबई रुक जाए परंतु दीपक उसके सामने एक चट्टान के समान था। उसने रोकने के लिए विनय, अनुरोध, क्रोध, छल प्रत्येक संभव चेष्टा की परंतु दीपक के सामने उसकी एक न चली।
दीपक के सामने लिली के सब प्रयत्न असफल रहे। दीपक के प्रेम के साथ यदि छल हुआ तो वह सहन कर लेगा, परंतु उसके विश्वास को धोखा देने वाले व्यक्ति को वह कभी क्षमा न करेगा।
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