ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
दीपक का मुख लाल हो रहा था। उसकी आंखें जलते हुए अंगार के समान दिखाई दे रही थीं। दीपक ने उन दहकते अंगारों से लिली की ओर देखा और अपनी सीट छोड़कर बाहर निकल गया। लिली भी उसके पीछे-पीछे बाहर निकल आई। वह सिनेमा के एक स्तंभ के पास मौन खड़ा था। लिली उसके निकट पहुंची और धीरे-से बोली, ‘दीपक!’
‘क्या कुछ और सुनना बाकी है जो....।’ क्रोध से दीपक के होंठ कांप उठे।
‘देखो, चारों ओर खड़े मनुष्य क्या कहेंगे! चलो घर चलें।’
‘तुम अंदर जाओ। कहीं उस बेचारे का मजा किरकिरा न हो जाए।’ और यह कहता हुआ वह सिनेमा के बरामदे से बाहर आ गया और तेजी से फुटपाथ पर पैर बढ़ाता हुआ अपने घर की ओर जाने लगा।
लिली जब घर पहुंची तो दीपक को उसने अपने कमरे में लेटे रोते पाया। लिली उसके निकट बैठ गई। उसका हृदय भर आया। ममतामयी नारी मानों थोड़ी देर के लिए उमड़कर बाहर आ निकली और वह दीपक के सिर पर हाथ फेरते हुए मुस्कराकर बोली-
‘कैसी अनोखी बात है। पुरुष भी क्या इस प्रकार रोया करते हैं?’
‘ठीक कहती हो।’ दीपक धीरे-से बोला, ‘पुरुषों का रोना शोभा नहीं देता। मेरी आंखों में देखा। अब वह रो चुकी हैं। वे आंसू सूख चुके हैं। भविष्य में यह भूल मुझसे न होगी।’ वह उठ बैठा। लिली ने अपनी बांहें उसके शरीर के चारों ओर लपेटते हुए कहा, ‘मुझसे नाराज हो?’
‘मेरे नाराज होने से क्या होता ही क्या है?’
‘यदि तुम रूठ गए तो....।’
‘सागर जो है।’ दीपक ने बात काटकर कहा।
‘यह तुम क्या कह रहे हो दीपक?’
‘मैं ठीक कह रहा हूं। मुझे आज पता चला कि तुम किस प्रकार अपनी मर्यादा खो बैठी हो।’
‘मुझे तुमसे यह आशा न थी।’
‘और लिली मुझे भी....।’
‘आज न जाने कितने दिनों बाद वह मुझसे मिलने आया था। मैं तो न जाती, परंतु उसके बहुत कहने पर मुझे उसकी बात रखनी ही पड़ी। यदि तुम्हें यह भी पसंद नहीं तो मैं कभी उससे बात न करूंगी।’
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