ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘वह तो सिनेमा देखने गई हैं, सागर बाबू के साथ।’
‘किसके साथ?’ उसने फिर पूछा।
‘वह सामने वाले बंगले में हैं ना सागर बाबू उनके साथ।’
‘क्या सागर रोज यहां आता है?’
‘पहले तो कभी-कभी आते थे, परंतु कई दिन से रोज ही आते हैं।’
‘अच्छा तो बता कर गई है कि सिनेमा जा रही है!’
‘जी, मुझसे तो कुछ नहीं कहा। वह जाने को मना कर रही थीं तो सागर बाबू ने कहा, ‘पास ही ‘अरोरा’ में जा रहे हैं। घर लौटने में देर भी न होगी।’
‘अरोरा टॉकीज में! देखो तुम सामान रखो, मैं अभी आता हूं।’ यह कहकर दीपक उल्टे पैर बाहर चला गया।
‘मुंह-हाथ धोते जाइए।’
‘अभी आ रहा हूं।’ दीपक ने बाहर जाते-जाते उत्तर दिया।
सागर और लिली दोनों सिनेमा देख रहे थे। जब इंटरवल हुआ तो दोनों ने निगाहें पर्दे से हटाकर एक-दूसरे को देखा और मुस्करा दिए। अंधेरे के कारण दोनों की आंखों में कुछ पानी-सा भरा हुआ था। सागर का हाथ लिली की कमर में था।
‘क्यों जी, बाहर चलना है?’ सागर ने हाथ कमर में से निकालते हुए पूछा।
‘क्या करेंगे।’
‘पानी....।’
‘मुझे प्यास नहीं।’
‘क्यों, पिक्चर पसंद आ रही है?’
‘पिक्चर तो जो है सो है, परंतु भय से प्राण निकले जा रहे हैं।’
‘क्यों भय कैसा? डैडी से कह देना कि माला के साथ सिनेमा चली गई थी।’
‘डैडी भला क्या कहते? जो थोड़ा-बहुत कहते थे, विवाह के बाद उसकी भी छुट्टी हो गई है।’
‘तो फिर भय किस बात का?’
‘ऐसे ही, न जाने मन में एक भय-सा क्यों बैठा हुआ है। सोचती हूं कि कहीं दीपक न आ गया हो!’
‘आने से पहले सूचना तो देगा।’
‘कभी-कभी वह सूचना दिए बिना भी आ जाता है।’
‘आ भी जाए तो क्या हुआ? छोड़ो भी कैसी बात छेड़ी है, सारा मजा किरकिरा हो गया। वह क्या पास खड़ा है जो इतना डर रही हो?’
‘यदि यहीं बैठे किसी परिचित व्यक्ति ने उसे इसकी सूचना दे दी तो?’
‘यहां ऐसा है ही कौन। यह कहकर सागर ने अपने चारों ओर बैठे हुए लोगों की ओर देखना शुरु किया और घूमकर पिछली सीटों पर भी देखा। अचानक उसकी दृष्टि पहली सीट पर ही रुक गई। वह आंखे फाड़-फाड़कर देखने लगा।’
‘क्यों? क्या बात है?’ लिली ने घूमकर पीछे देखा और उसके मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘दीपक तुम!’ और लिली को काटो तो खून नहीं।
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