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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘क्या तुम्हारे हृदय में यह अभिलाषा नहीं कि जिसके साथ चाहो हंसो, खेलो, क्लब में जाओ, पिकनिक, सिनेमा द्वारा अपना मनोरंजन करो?’

‘क्यों नहीं।’

‘तो क्या अब तुम एक मनुष्य की दासता के कारण अपने जीवन के सुख को समाप्त कर दोगी?’

‘यह तो तुम ठीक कहते हो, परंतु दीपक को क्यों कर मनाऊं?’

‘कोशिश करो, स्त्री चाहे तो क्या नहीं कर सकती और फिर तुम चाहो...।’

‘यदि मना भी लिया जाए तो भी वह ऐसे स्थान पर जाना पसंद न करेगा जहां तुम और हम जाकर प्रसन्न होते हो।’

‘वह न जाए तुम तो जा सकती हो। जब तुम यहां रहोगी तो वह दबकर रह सकता है। उसके लिए तुम अपने जीवन को नीरस थोड़े ही बना लोगी?’

‘अच्छा देखो क्या होता है। आओ पहले चाय पी लो।’

‘नहीं, देर हो रही है, फिर कभी सही।’

‘आओ न, तुम तो लड़कियों की तरह नखरे करने लगे।’

लिली ने चाय मंगाई और दोनों बैठकर पीने लगे। सागर ने बातों ही बातों में लिली के सब निश्चय बदल डाले। कहते है मनुष्य अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर शीघ्र खिंच जाता है। लिली भी सागर की बातों में आ गई।

सागर के चले जाने पर लिली मन ही मन सोचने लगी, सागर ठीक ही तो कहता है। चंद्रपुर जाने पर तो वह एक बंदी के समान हो जाएगी और दीपक के संकेतों पर नाचना पड़ेगा। यदि वह बंबई में उसके घर रहे तो कोई अनुचित मनमानी न कर सकेगा और यहां उसे इच्छानुसार सब कुछ करने के लिए किसी की आज्ञा की आवश्यकता न होगी। मैं दीपक की पत्नी अवश्य हूं परंतु मेरी स्वतंत्रता छीनने का तो उसे कोई अधिकार नहीं। यदि वह किसी प्रकार की कठोरता का व्यवहार मुझसे करेगा तो मैं भी देख लूंगी और न जाने कितनी देर वह इसी प्रकार सोचती बैठी रही।

दो-चार दिन बाद दीपक का एक पत्र लिली को मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह जल्दी ही अपना कारोबार जमाकर उसे लेने के लिए आएगा। लिली ने पत्र पढ़ा और बड़बड़ाकर बोली, ‘लेने आएगा। जैसे सब उसी की चलती है।’ वह डैडी के पास गई। वह चंद्रपुर कभी न जाएगी। वह किसी प्रकार दीपक को यहां रोक लें। डैडी ने सांत्वना दी। वह प्रयत्न करेंगे।

लिली स्वार्थी होती जा रही थी। दीपक का प्रेम उसे एक दिखावा-सा जान पड़ा। वह प्रतिदिन सागर के साथ घूमने जाती। सागर भी जले पर तेल का काम करने लगा। वह लिली को दीपक के विरुद्ध भड़काता।

इसी प्रकार दिन बीतते गए। सेठ श्यामसुंदर ने लिली का सागर से आवश्यकता से अधिक मिलना पसंद न किया, परंतु वह बातों ही बातों में उन्हें टाल देती – वह तो एक मित्र के नाते उससे मिलने चला आता है और कौन है जिसके साथ वह बाहर घूमने जाए। आपको तो समय ही नहीं मिलता। लिली कहती। सेठ साहब अपनी लड़की की बात सुनकर मुस्करा देते और कहते, ‘अब तुम सयानी हो, जो चाहो करो। जरा दीपक के साथ सावधानी से चलना। कुछ लोग इतनी स्वतंत्रता पसंद नहीं करते।’

शाम के साढ़े पांच बजे थे। टैक्सी सेठ साहब की कोठी के सामने रुकी और दीपक सामान लेकर उतरा। आज वह पूरे दो महीने बाद वापस बंबई आया था। उसने आने की सूचना किसी को नहीं भेजी थी। वह बरामदे में पहुंचा। इधर-उधर देखा। कोई न था। संध्या का समय था। शायद कहीं बाहर गई, यह सोचकर उसने कमरे की ताली उठाई और जाकर दरवाजा खोलने लगा। आहट पाकर किशन आ पहुंचा और दीपक को देखकर बोला, ‘दीपक बाबू, कब आए?’

‘बस आ ही रहा हूं। देखो बरामदे में सामान रखा है, उठा लाओ।’

‘बहुत अच्छा।’ यह कहकर किशन जाने लगा।

‘किशन, जरा सुनो तो।’

‘जी।’

‘लिली कहां है?’

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