ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘मैं तुम्हें किस प्रकार विश्वास दिलाऊं कि जो कुछ माला मे तुमने कहा है वह बिल्कुल सच है।’
‘खैर जाने दो, अब मुझे क्या लेना है पुरानी बातों को कुरेद कर!’
‘परंतु मेरी विवशता को देख मुझे क्षमा तो कर सकते हो।’
‘इससे क्या अंतर पड़ता है।’
‘हृदय का संतोष ही सही।’
‘यदि तुम इतने से ही संतुष्ट हो सकती हो तो इसमें क्या आपत्ति है?’
‘तो एक बार कहो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया।’
‘लिली मुझे लज्जित क्यों करती हो?’
‘क्या अब भी तुम्हारे हृदय में मेरे लिए कुछ आदर है?’
‘क्यों नहीं, मैं इतना नीच नहीं कि अपने स्वार्थ-साधन के लिए किसी की पगड़ी उछाल दूं। मिलना न मिलना तो लगा रहता है।’
‘तुम्हारा इशारा शायद....।’
‘हां लिली, दीपक की ओर है। मैं जानता हूं कि अब तुम उसकी जीवन-संगिनी बन चुकी हो परंतु तुम उसके साथ सुखी जीवन नहीं बिता सकतीं।’
‘यह तुम कैसे कह सकते हो?’
‘जो मनुष्य तुम्हारे डैडी द्वारा किए गए उपकार भूलकर उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार कर सकता है, क्या यह संभव नहीं कि वह कल तुम्हारी किसी बात पर तुम्हें इससे भी अधिक पतित बनाए।’
‘परंतु सागर, वह मुझसे सच्चे हृदय से प्रेम करता है।’
‘केवल उस समय तक जब तक तुम उसकी हां में हां मिलाती रहोगी या वही करोगी जो वह चाहेगा।’
‘परंतु वह तो मेरी प्रत्येक बात मानता है।’
‘इसीलिए तो वह तुम्हें चंद्रपुर ले जाना चाहता है, उन सूनी पहाड़ियों में। वह भी तो शायद तुम्हारी ही इच्छा से है!’
‘नहीं-नहीं, ऐसी बात तो नहीं है।’
‘तुम्हारा शेष जीवन उन पहाड़ियों में ही समाप्त हो जाएगा। सच पूछो तो मुझे तुम पर तरस आता है।’
‘परंतु सागर, अब मैं कर भी क्या सकती हूं?’
‘मनुष्य चाहे तो क्या नहीं कर सकता?’
‘परंतु अब तो मेरे पैर समाज की जंजीरों में जकड़े जा चुके हैं।’
‘यदि तुम चाहो तो उनको तोड़ भी सकती हो।’
‘परंतु लोग क्या कहेंगे?’
‘उनको पता भी न चलेगा।’
‘वह कैसे?’
‘देखो लिली, तुम एक स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हो। भगवान की दया से पढ़ी-लिखी हो, सुंदर हो, रुपया-पैसा है। फिर जो चाहो कर सकती हो।’
‘परंतु मुझे करना क्या है?’
‘जो तुम करना चाहती हो, परंतु मुंह से कहना नहीं चाहती।’
‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।’
‘क्या तुम यही नहीं चाहती कि बंबई में रहो!’
‘क्यों नहीं!’
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