ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘आज यार खूब जंच रहे हो। इस सूट में तो ऐसे बांके दिखाई देते हो कि हम लोगों को शर्म-सी आ रही है।’
‘फिर तो मेरा सौभाग्य है कि आप लोग मुझे पसंद करने लगे।’ दीपक ने कहा।
‘अरे, हमारे पसंद करने से क्या? कोई लड़की पसंद करे तब ना।’
‘तो क्या यह कोई स्वयंवर हो रहा है? तब तो हमारा भी चांस है।’
लिली ने धीरे-से अपना पांव मारा। दीपक समझ गया कि यह चुप रहने की सूचना है। वह चाय पीने लगा। अनिल ने कहा-
‘दीपक, मान लो कि यह एक स्वयंवर हो रहा है तो तुम्हें किसी से यह आशा है कि वह तुम्हारे गले का हार बन जाए?’
‘क्यों नहीं? आखिर जो भी आता है किसी आशा पर ही आता है।’
‘मॉडर्न स्वयंवर में किसी माला की आवश्यकता नहीं, केवल संकेत से ही काम चल जाता है।’
‘हमें भी तो मालूम हो कि वह कौन-सा संकेत है?’
‘भई, हम तो इतना जानते हैं कि अगर कोई लड़की तुम्हारी चुटकी ले जाए तो समझो वह तुम्हें पसंद करती है। यदि कोई धीरे-से चोरी-चोरी पैर से ठोकर लगा दे तो समझो उसे तुमसे प्रेम हो गया।’
यह सुनकर सब हंस पड़े। दीपक धीरे-धीरे चाय का प्याला पीते हुए मेज के दूसरे किनारे पर जा खड़ा हुआ और सब लोगों की तरह-तरह की बातें सुनने लगा।
‘भला क्या आपत्ति हो सकती है।’ अनिल ने कहा।
‘दीपक साहब, यदि आपके हाथों में फूलों की माला हो और स्वयंवर में आपको छोड़ दिया जाए तो आप माला किसके गले में डालेंगे?’
‘यह काम किसी लड़की को सौंपा होता तो अच्छा था।’
‘कुछ समय के लिए यदि आप लड़की बन जाएं तो क्या अंतर पड़ता है? कल्पना ही कर लीजिए।’
‘यदि कुछ समय के लिए यहां की सब लड़कियां अपने आपको लड़का समझने लग जाएं तो....।’
‘मान लो समझ लें फिर....।’
‘दीपक ने चारों ओर देखा। सब उसकी ओर देख रहे थे कि उसकी दृष्टि कहां जाकर ठहरती है। उसकी आंखें घूमती हुई लिली पर जा रुकीं। सब दीपक की ओर देखने लगे। उसने उंगली से लिली की ओर संकेत किया।’
‘तुम्हारा मतलब, लिली?’सबके मुंह से एक साथ निकला।
‘जी! लिली।’
‘तो सागर बेचारा क्या करेगा?’ अनिल बोला और सब हंसने लगे। लिली ने क्रुद्ध होकर कहा, ‘दीपक मुझे यह अशिष्टता पसंद नहीं।’
‘इसमें अशिष्टता क्या? यह कल्पना ही तो की जा रही है।’
सागर से रहा न गया। उसने कहा-
‘इस प्रकार की हंसी अपनी बहनों से नहीं की जाती।’
‘ओह! मुझे पता न था कि लिली तुम्हारी बहन है।’ दीपक ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
‘दीपक होश में रहो। यह तुम क्या कह रहे हो? आखिर शराफत भी कोई चीज है।’
‘शराफत?’ वह जोर से हंसा और फिर बोला, ‘शराफत तो उसी मनुष्य के पास है जिस बेचारे को कोई अवसर नहीं मिला। अंतर केवल इतना है कि किसी को आधी रात के अंधेरे में और किसी को दिन के उजाले में अवसर मिल ही जाता है।’
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