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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘तुम आवश्यकता से अधिक बढ़ते जा रहे हो। लिली बोली, कृपा करके यहां से चले जाइएगा।’

दीपक चुपचाप बाहर की ओर जाने लगा। चाय का प्याला तब उसके हाथ में था। वह दरवाजे के पास रखी मेज पर उसे रखने लगा। तभी उसे सागर के ये शब्द सुनाई दिए, ‘कमीना कहीं का!’

इतना सुनना था कि दीपक उल्टे पैरों वापस लौटा। सब मौन खड़े उसकी ओर देख रहे थे। दीपक सागर के ठीक सामने आ गया। उसके मुख पर रोष था, आंखें मानों चिनगारियां बरसा रही हो.... लगता था कि वह आपे से बाहर हो जाएगा... परंतु दूसरे ही क्षण उसने हाथ का प्याला मेज पर दे फेंका और मुंह फेरकर धीरे-धीरे बाहर चला गया। कुछ अतिथियों के कपड़ों पर गरम चाय गिरी और कुछ पर प्याले के टुकड़े। दो-चार की तो चीख निकल गई और कुछ घबराकर पीछे हट गए।

रात के नौ बजे थे। दीपक वापस आया और उसने अभी अपना कोट उतारकर अलमारी में रखा ही था कि किशन कमरे में आते ही बोला, ‘आपको साहब बुला रहे हैं।’

‘कहां?’

‘अपने कमरे में।’

‘चलो, अभी आता हूं।’ यह कहकर दीपक किशन के पीछे-पीछे हो लिया। यह जानता था कि सेठ साहब उससे क्या कहने वाले हैं, परंतु आज उसके हृदय में किसी प्रकार का भय नहीं था। वह बेधड़क सेठ साहब के कमरे में जा पहुंचा। वह क्रोध में भरे अपने कमरे में चक्कर काट रहे थे।

‘कहिए क्या आज्ञा है?’

‘आओ, कहो कब आए?’

‘आज शाम की गाड़ी से।’

‘तुम्हारे पिताजी की आकस्मिक मृत्यु से बहुत दुःख हुआ।’

‘इस पर मेरा दुर्भाग्य कि मैं उनसे अंतिम समय मिल भी न सका।’

‘जो भगवान को स्वीकार हो उसे कौन टाल सकता है?’

‘जी।’ और दीपक लौट पड़ा।

‘क्यों? कहां चल दिए?’

‘कपड़े बदलने हैं। अभी बाहर से आया हूं। कहिए क्या आज्ञा है?’

‘दीपक, तुम पहले ही बहुत दुःखी हो। मैं नहीं चाहता कि तुम्हें और दुःखी करूं, परंतु बात ही कुछ ऐसी है कि लाचार हूं।’

‘क्यों, ऐसी क्या बात है, क्या मुझसे कोई भूल हो गई है?’

‘आज शाम की पार्टी में जो कुछ हुआ, क्या उसको दोहराने की आवश्यकता है।’

‘नहीं तो।’

‘मेरी दी हुई स्वतंत्रता का तुमने दुरुपयोग किया।’

‘मैं तो ऐसा नहीं समझता।’

‘इसलिए कि तुम जानते हो कि तुम्हारे बिना मेरे कारोबार को ठेस पहंचेगी और मैंने तुम्हें कुछ ऐसे भेद बता दिए हैं जो न बताने चाहिए थे। परंतु यह याद रखना कि मैं अपनी हठ के लिए अपना घर भी नष्ट कर सकता हूं।’

‘अशिष्टता के लिए क्षमा। वैसे हठ में मैं भी आपसे कम नहीं।’

‘बदतमीज...। पहले सभ्यता से बात करना सीखो।’

‘सभ्यता तो आप ही के पास रहकर सीखी है। विश्वास न हो तो लिली से पूछ लीजिए।’

‘उसका नाम अपनी गंदी जुबान पर न लाओ। वह तुम्हारी सूरत तक देखना नहीं चाहती।’

‘परंतु मैं तो देखना चाहता हूं।’

‘दीपक, यह बड़े खेद की बात है जिस थाली में तुम्हें खाना मिला उसी में थूकना चाहते हो।’

‘परंतु खाना मैंने मुफ्त में नहीं खाया, मैं दाम दे चुका हूं।’

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