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ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
8
दीपक जब चंद्रपुर पहुंचा तो उसके पहुंचने से पहले ही हृदयगति बंद हो जाने से उसके पिता, जमींदार रामदास परलोक सिधार चुके थे। इस घटना से उसे हार्दिक दुःख हुआ। मुनीमजी ने उसे बताया कि उनकी अंतिम आकांक्षा यही थी कि दीपक को एक बार देख लेते। परंतु उनकी यह कामना पूर्ण न हो सकी। दीपक की आंखों से आंसू बह निकले। वह शहर जाकर कारोबार में इतना उलझ गया कि उसे अपने पिताजी का भी ध्यान न रहा।
उसने यह दुःखद समाचार बंबई में सेठ साहब के पास भेज दिया। उसने रीति के अनुसार अपने पिता का क्रिया-कर्म कर दिया। निर्धनों को दान दिया और जमींदार साहब ने जो बातें वसीयत में लिखी थीं, सबको पूरा किया। वह अपनी सारी जायदाद दीपक को दे गए थे। जब वह सब आवश्यक काम कर चुका तो उसने सारी जमींदारी की जिम्मेदारी मुनीमजी को सौंप दी और उनसे कह दिया कि वह शीघ्र ही आकर वहां का कारोबार संभाल लेगा।
आज दीपक बीस दिन के बाद बंबई वापस जा रहा था। स्टेशन पर जब उतरा तो उसका हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। इसी बीच में सेठ साहब और लिली ने शायद सोचकर उसको अपने मार्ग से हटाने का प्रबंध कर लिया हो। पिताजी की मृत्यु ने वैसे ही उसे आधा पागल बना दिया था।
जब वह कोठी पहुंचा तो बरामदे में कोई न था। वह अपनी अटैची उठाये भीतर गया। अपने आने का समाचार उसने किसी को नहीं दिया था। संध्या का समय था। वह सोच रहा था कि लिली कॉलेज से आ चुकी होगी। इसी समय उसे बहुत से आदमियों और औरतों के हंसने का शब्द सुनाई दिया, मानों कोई सभा हो रही थी। वह पिछले मार्ग से अपने कमरे में जाने लगा। जब वह दरवाजे के पास पहुंचा तो किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। वह घबरा गया। उसने घूमकर देखा। माला सामने खड़ी थी।
‘ओह तुम!’ उसने मुस्कराते हुए कहा।
‘क्यों जी? चोरी-चोरी इस प्रकार अंदर आने का मतलब?’
‘माला, अंदर यह सब क्या हो रहा है?’
‘बताती हूं, पहले तुम बताओ, कब आए?’
‘अभी तो आ रहा हूं सीधा।’
‘तुम्हारे पिताजी के विषय में सुनकर दुःख हुआ। सुना है तुम्हारे पहुंचने से पहले ही....।’
‘हां माला, यह मेरा दुर्भाग्य था कि अंतिम समय में उनसे न मिल सका।’
कुछ देर दोनों मौन रहे।
दीपक ने फिर पूछा, ‘मेरे प्रश्न का उत्तर अभी तक नहीं मिला।’
‘हां दीपक, लिली की सागर से बात पक्की हो गई है। अभी सगाई तो नहीं हुई परंतु लिली से एडवांस पार्टी ली जा रही है। चलो कपड़े बदल लो और सम्मिलित हो जाओ।’
दीपक के सिर पर मानो किसी ने हथौड़ा मार दिया हो। भूमि और छत घूमती हुई दिखाई देने लगी। उसने अपने निर्जीव हाथों से कमरे का दरवाजा खोला और अंदर जाकर कुर्सी पर बैठ गया। माला बड़े कमरे में लौट गई।
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