ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘क्यों?’
‘इसका उत्तर देना मैं उचित नहीं समझता।’
‘इसलिए कि लिली तुम्हें पसंद नहीं करती।’
‘यदि मैं यह कहूं कि यह सत्य नहीं तो?’
‘वह कभी झूठ नहीं बोल सकती, मुझे विश्वास है।’
‘तो इसका अर्थ यह हुआ कि आपको मुझ पर विश्वास नहीं?’
‘हो सकता है।’
‘आप लोग व्यापार के लिए तो मुझ पर विश्वास कर सकते हैं परंतु मेरी कही हुई बात पर आपको विश्वास नहीं?’
‘तुम आवश्यकता से अधिक अशिष्टता पर उतर आए हो।’
‘आप यह अनुभव नहीं कर सकते कि मेरे ऊपर क्या बीतती है और मैं इसके लिए कितना पतित हो चुका हूं।’
‘क्या कुछ और पतित होना बाकी है?’
‘आप मुझे गलत समझ रहे हैं।’
‘मेरी आंखों से दूर हो जाओ।’
‘आपकी आज्ञा सिर-आंखों पर परंतु यह न भूलिए कि आपके पास लिली मेरी धरोहर है।’ यह कहकर दीपक बाहर निकल गया। सेठजी ने क्रोध में हाथ की पुस्तक फेंक दी और लिली के कमरे की ओर चल दिए।
सेठ साहब और लिली अब एक उलझन में पड़ गए। लिली को आशा न थी कि दीपक यहां तक बढ़ सकता है और सेठ साहब ने तो ऐसा स्वप्न में भी न सोचा था।
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