ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘कौन-सी ऐसी बात है जो इतना....?’
‘मुझे आपसे कुछ मांगना है।’
‘क्या?’
‘लिली।’
‘यह तुम क्या कह रहे हो, दीपक?’
‘मैं आपसे ठीक ही कह रहा हूं। कई दिन से कहने का विचार कर रहा था परंतु....।’
‘मुझे तुमसे यह आशा न थी।’ सेठ साहब के मुख पर क्रोध की रेखाएं खिंच गई।
‘मैं कोई पाप नहीं कर रहा। क्या मैं इस योग्य नहीं?’
‘मेरा तुम्हें अपने घर में रखना और लिली के साथ इस प्रकार स्वतंत्र मेल-जोल की आज्ञा देने का यह अभिप्राय....।’
‘मैं नहीं समझता कि मैंने इस अवधि में आप लोगों द्वारा दी गई सुविधाओं का दुरुपयोग किया हो।’ दीपक बीच में ही बोल उठा, ‘मैं उससे प्रेम करता हूं और प्रेम करना कोई अपराध नहीं।’
‘क्या लिली को इसका ज्ञान है?’
‘मैं कह नहीं सकता। जहां तक मैं समझता हूं उसे भी....।’
‘दीपक तुम जानते हो कि मैं तुम्हारे पिता के समान हूं?’
‘इसीलिए तो मैं सीधा आपके पास चला आया।’
‘और यह भी अच्छी तरह जानते हो कि सागर से उसके बारे में बात भी हो चुकी है?’
‘इसीलिए तो मुझे यह अशिष्टता समय से पहले करनी पड़ी।’
‘इसका अर्थ यह हुआ कि बहुत समय से तुम्हारे दिमाग में....।’
‘जी, इसे लिली भी भली प्रकार से जानती है।’
‘यह सब बकवास है डैडी।’ लिली ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा। वह दरवाजे के पीछे से सब बात सुन रही थी।
‘यह सब क्या तमाशा है? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। लिली, तुम यहां से जाओ।’ सेठ साहब ने लिली से कहा और वह नाक सिकोड़ती हुई दूसरे कमरे में चली गई। सेठ साहब ने दीपक को संबोधित करके कहा-
‘दीपक, ये सब बातें कहकर तुमने बहुत बुरा किया।’
‘हमारा खानदान क्या किसी से कम है? और मेरे पिताजी को आप अच्छी तरह जानते हैं। हमारी हैसियत से भी आप अपरिचित नहीं। यह दूसरी बात है कि मैं आज आपका नौकर हूं।’
‘लंबी-चौड़ी बहस की मुझे आदत नहीं। मेरा इतना उत्तर ही बहुत है कि यह सब असंभव है।’
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