ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘लिली, सच मानो, मैं किसी बुरे विचार से नहीं आया।’
‘मुझे परेशान करने की आवश्यकता नहीं, यहां से चले जाइए।’
‘क्या उत्तर लेकर?’
‘मेरा विचार छोड़ दो। मैं तुम्हारी नहीं हो सकती। अब लिली के स्वर में नम्रता थी। वह भय से कांप रही थी।’
‘यह असंभव है, लिली।’
‘दीपक, अब तुम्हारे हृदय में मेरे लिए घृणा है। मुझे अपनाकर क्या करोगे?’
‘घृणा और प्रेम में थोड़ा अंतर है, एक का दूसरे में बदल जाना संभव है।’
‘किंतु मुझे ऐसे प्रेम की आवश्यकता नहीं। और वह धीरे-धीरे दरवाजे के पास जा पहुंची।’
‘मुझे तो आवश्यकता है।’ दीपक ने लिली का हाथ पकड़ लिया।
‘दीपक, मुझे तुम्हारे विचारों से सहानुभूति नहीं।’ उसने अपना हाथ छुड़ाया और तेजी से भागकर ड्राइंगरूम में जा पहुंची और बाहर का दरवाजा खोलने लगी। दीपक भी उसके पीछे-पीछे वहां पहुंचा।
‘कहां जा रही हो?’ दीपक ने लिली को पकड़ते हुए कहा।
‘बाहर, मैं रात को अकेली नहीं रह सकती।’
‘इतनी रात गए कहां जाओगी?’
‘कहीं भी जाऊं, तुम्हें इससे क्या?’
‘मुझे बहुत कुछ है।’ यह कहकर वह लिली का हाथ पकड़कर उसे खींचते हुए कमरे में ले गया और पलंग पर गिरा दिया।
‘लिली, मैं इतना नीच नहीं। तुम मेरे पास सेठ साहब की धरोहर हो।’ यह कहकर वह दरवाजे से बाहर जाते-जाते बोला-
‘आज तक सुनता आया हूं कि मनुष्य प्रेम में पत्थर से भी पानी निकाल सकता है, परंतु अब सोचता हूं कि मनुष्य जो काम प्रेम से नहीं कर सकता वह घृणा से पूरा कर सकता है।’ यह कहकर दीपक ने दरवाजा बंद करके बाहर से कुण्डा लगा दिया। बाहर ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी परंतु उसका शरीर तवे की भांति गरम था। उसके अंदर एक आग-सी लगी थी। उसने बाग में लगे फव्वारे को खोल दिया और उसके नीचे घास पर लेट गया। थोड़ी ही देर में वह पानी में डूब-सा गया परंतु उसके शरीर की ज्वाला शांत न हुई।
अगले दिन इतवार था। सेठजी सवेरे ही वापस पहुंच गए और नहा-धोकर दीपक को बुला भेजा। परंतु दीपक काम नहीं करना चाहता था। उसने सिरदर्द का बहाना करके छुट्टी पाई और अपने कमरे में लेटा रहा।
संध्या के समय सेठ साहब अपने कमरे में बैठे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। लिली कहीं बाहर गई थी। इतने में दरवाजा खुला और दीपक ने कमरे में प्रवेश किया।
‘आओ दीपक।’ सेठ साहब ने ऐनक में से नजरें ऊपर उठाते हुए कहा। दीपक चुपचाप जाकर उनके समीप ही खड़ा हो गया और सिर नीचा किए अपनी उंगलियों से खेलने लगा। सेठ साहब समझ गए कि कुछ कहना चाहता है।
‘क्यों दीपक, कैसी तबियत है?’
‘अब तो अच्छी है डैडी....।’ कहते हुए वह रुका तो सेठ साहब बोले- ‘क्यों, क्या बात है, रुक क्यों गए?’
‘मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं।’
‘क्या?’
‘कहने से पहले इस अशिष्टता के लिए क्षमा चाहता हूं।’
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