ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
लिली अभी तक गुमसुम-सी बैठी उनकी बातें सुन रही थी। उसने संभलते हुए अपनी साड़ी का पल्ला ठीक करना चाहा परंतु दीपक ने उसे खींचते हुए कहा, ‘क्यों इसकी क्या आवश्यकता है। मुझमें और सागर में क्या अन्तर है?’
दीपक ने अपना मुंह लिली की ओर से फेर लिया।
‘यह आज तुम्हें क्या हो गया है?’
‘कभी-कभी यह जंगलीपन सवार हो ही जाता है, विवश हूं।’
‘शायद तुम्हें हमारा इस प्रकार अकेले बैठना पसंद नहीं?’
‘मेरे पसंद न आने से क्या होता है। तुम्हें तो पसंद है न? और पसंद भी क्यों न हो, यह सुहावना समय, छिटकी हुई चांदनी। मुझे अधिक बनाने का प्रयत्न न करो। अपने काम से मतलब रखो।’
‘बहुत अच्छा, आगे से ऐसा ही होगा।’
इतने में माला और उनके अन्य साथी भी वहां आ गए और दीपक को खींचकर अपने साथ ले गए। सबने मिलकर आइसक्रीम खाई। आइसक्रीम बहुत अच्छी बनी थी परंतु आनंद किसी को भी न आया।
रात्रि के बारह बज चुके थे। दिन के थके-मांदे तो थे ही। घर वापस पहंचते ही सोने की तैयारी की। दीपक, सागर और अनिल एक कमरे में और बाकी सब दूसरे में। रानी और मधू तो आते ही सो गई। परंतु माला और लिली बाहर बालकनी में खड़ी आपस में बातें करने लगीं। माला के पेट में कोई बात न रहती थी। तनिक-सी किसी ने सहानुभूति प्रकट की तो उसकी हो गई। लिली ने जब दीपक की बात कही तो माला ने स्टेशन जाते समय की सारी घटना उसे कह सुनाई।
‘माला, यह तुमने अच्छा नहीं किया।’
‘परंतु अब जो भूल मुझसे हो गई है, उसका क्या करूं।’
‘तुम्हारे लिए साधारण भूल है। यदि उसने डैडी से कह दिया... तो?’
‘इसकी तुम चिंता न करो। वह डैडी से कभी न कहेगा।’
‘क्या तुम्हें इसका विश्वास है?’
‘हां चलो, अब सो जाओ। सवेरे जाना है। रात बहुत हो चुकी है।’
माला ने लिली को ले जाकर बिस्तर पर लिटा दिया और स्वयं भी लेट गई।
सवेरे की गाड़ी से सब बंबई लौट आए। सेठ साहब ने दीपक से रात को न आने के विषय में कुछ न कहा। जलपान करके दोनों फैक्टरी चले गए।
लिली के कॉलेज की छुट्टी थी और वह रात की थकी हुई थी। उसने अपने कमरे का दरवाजा बंद किया और सो गई।
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