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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। तुमने तो किसी गिरते हुए को बचा लिया।’

‘मैं तुम्हारा मतलब समझीं नहीं।’

‘क्या करोगी समझकर? अच्छा तुम जाओ। पार्टी को देर हो रही होगी।’ यह कहकर दीपक प्लेटफार्म की ओर चल पड़ा। माला भी उसके पीछे-पीछे आ गई और कहने लगी, ‘दीपक, जब तक मुझे नहीं बताओगे, मुझे तसल्ली नहीं होगी।’

‘व्यर्थ में क्यों चिंतित होती हो? कोई बात नहीं जाओ, देर हो रही है।’

‘तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो। अच्छा, चलती हूं। मेरे जैसा भी कोई मूर्ख होगा?’ यह कहकर माला जाने लगी। दीपक ने उसका हाथ पकड़कर कहा, ‘सुनना चाहती हो तो सुनो, मैं भी लिली से प्रेम करता हूं। और....।’

‘और लिली?’

‘यह तो तुम जानती ही हो।’

इतने में गाड़ी प्लेटफार्म पर आ गई। माला मौन खड़ी थी। दीपक गाड़ी की ओर लपका। माला वापस स्टेशन के बाहर आ गई और कार में बैठकर घर की ओर चल दी। दीपक रुका और उसे देखने लगा परंतु वह उसे दिखाई न दी।

माला घर पहुंची तो पार्टी का सब सामान तैयार था परंतु दीपक की बात सुनने के बाद वह चिंतित सी थी। न वह उसके साथ जाती और न उसे कुछ पता चलता।

आवश्यक वस्तुएं नौकरों के सिर पर उठवाकर वे सब साथ वाले बाग में पहुंच गए। चांदनी अपने पूर्ण यौवन पर थी। पास ही नदी बह रही थी। सागर और लिली ‘बोटिंग’ के लिए चले गए। अनिल और रानी आइसक्रीम बनाने लगे। मधु अनिल के मुंह का बाजा लेकर उसे बजाने लगी। माला का मन किसी भी बात में न लगा। वह कुछ दूरी पर एक पेड़ के पास आ खड़ा हुई।

कुछ समय तक वह इसी प्रकार खड़ी दूर देखती रही। फिर पास पड़े बैंच पर बैठ गई। वह सोचती रही कि कैसा अनोखा प्रेम है, जिसमें दिन-रात एक दूसरे के निकट रहने पर भी एक जल रहा है और दूसरों को उसका पता तक नहीं।

‘जरा देखूं, आइसक्रीम तैयार हुई या नहीं।’

‘हां, हां, अवश्य देखो। यदि हो गई हो तो हमारे लिए यहां भेज दो।’ यह कहकर लिली बैंच पर लेट गई और उसने अपना सिर सागर की गोद में रख दिया। सागर उसके बालों से खेलने लगा।

‘दीपक के आने से कुछ मजा किरकिरा-सा हो गया था।’

‘इसलिए तो उसे रात की गाड़ी से वापस भेज दिया है।’

‘लिली, तुम हो बहुत चतुर। उसके सामने तो मैं इस प्रकार डर-डरकर तुमसे बात करता था मानों वह मुझे खा ही जाएगा।’

‘हो तो डरपोक ही न, प्रेम करना है तो फिर डर कैसा?’

‘तुम तो जैसी डरती ही नहीं। तुम भी तो उसके सामने भीगी बिल्ली की तरह बैठ जाती हो।’

‘करूं भी क्या, घर के भेदिये से डरना ही पड़ता है।’

दोनों हंसने लगे।

‘लिली, वह देखो तो सामने कौन आ रहा है।’ सागर ने लिली का सिर अपनी गोदी से उठाते हुए कहा। लिली घबराकर उठ बैठी। पर एक परछाईं दूर उनकी ओर बढ़ती आ रही थी। लिली भयभीत हो उठी। कुछ ही देर में वह परछाई उनके समीप पहुंच गई। परछाई एक पुरुष की थी जो कोट-पतलून पहने थे। उसके पास आते ही लिली घबरा गई। उसकी जुबान खिंच गई और उसके मुंह से एक शब्द भी न निकल सका। दीपक सामने खड़ा था। सागर ने कुछ संभलते हुए पूछा, ‘तुम गाड़ी में.....।’

‘जी, परंतु गाड़ी मेरे पहुचंने से पहले ही छूट गई।’

‘अथवा यह कहिए कि भाग्य को तुम्हारा इस पार्टी में भाग लेना ही स्वीकार था और हमारा आकर्षण तुम्हें यहां तक खींच लाया।’

‘जैसा आप समझें, आपका आकर्षण कहिए या मेरी ढिठाई।’

‘अच्छा तुम लिली से बात करो, मैं सबको सूचना देता हूं।’ यह कहकर सागर चला गया।

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