ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
दीपक दूर के रिश्ते से उनका भांजा था। अपनी तो कोई संतान थी नहीं, बहन के विधवा होते ही वह उसे अपने पास ले आए थे, जब वह कोई पांच वर्ष का था। बाद में इसकी मां भी चल बसी और दीपक जमींदार साहब के ही घर का दीपक बन गया। समीप के ही शहर से उसे बी.ए. तक की शिक्षा दिलाई, उसे सभ्य बनाने में कोई कसर न रखी गई।
अब दीपक पढ़-लिखकर जवान हो चुका था और रामदास के टिमटिमाते हुए जीवन का अंतिम सहारा था। जीवन की यह यात्रा वह अकेले नहीं कर सकते थे। अब वह चाहते थे कि उनकी दुर्बल हड्डियों को तनिक आराम मिले, परंतु वह यह आराम अपने जीवन की पूंजी खोकर लेने के इच्छुक न थे। जमींदार साहब चाहते थे कि उनका काम दीपक संभाल ले। व्यापारियों से बातचीत, सौदा ठहराना, बाहर माल भिजवाना, यदि वह इस आयु में नहीं संभालेगा तो कब संभालेगा। अब वह बालक तो है नहीं!
इधर दीपक के हृदय पर इन हरी-भरी घाटियों के स्थान पर किसी और ही संसार का चित्रण खिंचा हुआ था। वह अपना जीवन इन सुनसान घाटियों में गलाने के लिए तैयार न था। वह इस नई भागती हुई दुनिया के साथ-साथ चलना चाहता था। परंतु यह विचार उसके हृदय के पर्दे से टकराकर ही रह जाते। उसने कई बार प्रयत्न किया कि वह जमींदार साहब से साफ-साफ कह दे परंतु कर्त्तव्य उसे ऐसी अशिष्टता की आज्ञा न देता।
उस रात भी सदा की भांति जमींदार रामदास अपनी अतिथिशाला में बैठे अपने अतिथि सेठ श्यामसुंदर के साथ बातचीत में व्यस्त थे। पास ही दीपक एक कुर्सी पर बैठा उनकी बातचीत का आनंद ले रहा था।
‘जमींदार साहब, आप जैसे संपन्न और प्रसन्नचित्त मनुष्य हमारे शहर में तो ढूंढे से भी न मिलेंगे। भगवान ने भी आपको अपनी प्रकृति से दूर छिपा रखा है।’ श्यामसुंदर कह रहे थे।
‘वाह साहब, आपने भी खूब कही। भला हम किस योग्य हैं! यह तो एक कर्त्तव्यमात्र है जिसे निभाने का मुझे अवसर दिया गया, नहीं तो कौन देवता और कौन पुजारी! यह सब उसकी बिखरी हुई माया है।’ जमींदार साहब ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
‘परंतु फिर भी आप हमारे लोभी और बनावटी संसार में आवें तो आप भले और बुरे की परख कर सकें।’
‘बहुत देखा साहब आपका संसार, उसकी रंगीनियां और न जाने क्या कुछ, परंतु अब देखने को जी नहीं चाहता। भगवान का दिया सब कुछ है, किस दिन काम आएगा! सब कुछ पास होने पर भी जो मनुष्य ऐसी बातों से परे रहे, उसके जीवन को धिक्कार है।’
‘हैलो दीपक, चुप क्यों हो?’ श्यामसुंदर ने बात बदलते हुए कहा।
‘यों ही। आप और पिताजी की बातचीत सुन रहा था।’
‘कितने भाग्यवान हो तुम कि तुम्हें इतने अच्छे पिता मिले हैं।’
‘भाग्यवान तो मैं भी कम नहीं जिसे इतना होनहार और आज्ञाकारी पुत्र मिला है।’ जमींदार साहब बोले।
इस पर सब हंसने लगे।
इस प्रकार बहुत देर तक बातचीत होती रही, व्यापार संबंधी, घरेलू संसार संबंधी! सेठ श्यामसुंदर बंबई के प्रसिद्ध व्यापारी थे। बंबई में इनका ऐनक बनाने का कारखाना था। लाखों की आमदनी थी। सारे शहर में अपने ढंग का एक ही कारखाना था।
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