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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

1

चंद्रपुर संसार के कोलाहल से दूर छोटी-छोटी, हरी-हरी घाटियों में एक छोटा-सा गांव है। दूर-दूर तक छोटे-छोटे टीलों पर लंबी-लंबी घास के खेत लहलहाते दिखाई देते हैं।

एक सुहावनी संध्या थी। लोग थके-मांदे घरों को लौट रहे थे। गांव के बाहर वाले मैदान में बालक कबड्डी खेल रहे थे। एक अजनबी, देखने में शहरी, अंग्रेजी वेश-भूषा धारण किए गांव की कच्ची सड़क पर आ रहा था। समीप पहुंचते ही बालकों ने कबड्डी बंद कर दी और उसे घेर, घूर-घूरकर देखने लगे।

‘ऐ छोकरे!’ अजनबी ने एक बालक को संबोधित करके कहा।

‘क्यों क्या बात है?’

‘देखो, तुम्हारे गांव में कोई डाक-बंगला है?’

‘आपका मतलब डाक बाबू...।’

‘नहीं, डाक-बंगला, मेहमानों के ठहरने की जगह।’

‘तो सराय बोलो न साहब।’

‘सराय नहीं, साहब लोगों के ठहरने की जगह।’

‘साहब लोग तो रामदास की हवेली में ठहरते हैं। सामने दीपक बाबू आ रहे हैं, उनसे बात कर लें।’

‘क्यों क्या बात है, रामू, श्यामू ?’ दीपक ने समीप आते ही पूछा।

‘यह बाबू रहने की जगह मांगे हैं।’

‘जाओ तुम सब लोग अपने-अपने घरों को। संध्या हो गई है।’

‘देखिए साहब, हम लोग बंबई जा रहे थे कि हमारी गाड़ी में कुछ खराबी हो गई। रात होने को है। इन पहाड़ियों में रात के समय यात्रा करना खतरे में खाली नहीं। रात बिताने को जगह चाहिए। पैसों की आप चिंता न करें, मुंह-मांगा दिला दूंगा।’ अजनबी कहने लगा।

‘तुम्हारे साथ और कौन हैं?’

‘मेरे मालिक सेठ श्यामसुंदर... बंबई के रईस, उनका सैक्रेटरी और मैं उनका ड्राइवर शामू।’

‘गाड़ी कहाँ हैं?’

‘सामने सड़क पर।’

दीपक और शामू, दोनों सड़क की ओर चल दिए।

दीपक सेठ श्यामसुंदर और उनके साथियों को सीधा अपनी हवेली में ले गया। बाहर वाली बैठक में उनके ठहरने का प्रबंध कर दिया। आदर-सत्कार के लिए नौकर-चाकर तो मौजूद थे ही।

चंद्रपुर में जमींदार रामदास की धाक थी। अतिथि-सत्कार के लिए तो दूर-दूर तक उनकी चर्चा थी। धन था, जायदाद थी, दो सौ तो जंगली घास के खेत थे... लंबी-लंबी और मोटी घास। दूर-दूर के व्यापारी घास के गट्ठे के गट्ठे खरीद ले जाते और शहरों में व्यापार करते थे।

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