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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

सवेरा होते ही शामू गाड़ी के गिर्द हो लिया और कोई नौ बजे तक सब ठीक कर डाला। सेठ साहब का सामान भी बंध चुका था और चलने की तैयारी थी। जमींदार साहब सेठ साहब को हवेली की ड्योढ़ी तक छोड़ने आए।

‘देखिए साहब, यदि आप कभी बंबई आएं तो सीधे हमारे यहाँ आइएगा।’

‘क्यों नहीं, यह कभी हो सकता है कि कुएं पर जाकर प्यासे लौट आवें!’

‘अच्छा तो अब आराम कीजिए। यदि जीते रहे तो फिर भेंट होगी। मैं आपका यह उपकार जीवन भर नहीं भूल सकूंगा।’

सेठ साहब, आप क्यों व्यर्थ लज्जित करते हैं। मैं आपको नीचे सड़क तक छोड़ आता परंतु स्वास्थ्य आज्ञा नहीं देता। उतर तो लूं परंतु चढ़ना जरा...

‘कोई बात नहीं। आप नहीं तो आपका प्रतिरूप तो साथ है।’

‘अवश्य, यह भी तो आपका बच्चा है।’

अभिवादन करके सब सड़क की ओर चल दिए। उतरती हुई पगडंडी कितनी सुंदर जान पड़ती थी। चारों ओर एक हरा समुद्र-सा फैला हुआ था।

‘क्यों दीपक, तुम्हारा मन तो ऐसी सुहावनी जगह बहुत लगता होगा। खुली हवा, प्रकृति की गोद और फिर सोने पर सुहागा कि रामदास जैसे पिता?’

‘जी आप ठीक कहते हैं, परंतु....’

‘क्यों दीपक, इस वातावरण में भी तुम्हारे मुख में परंतु का शब्द!’

‘सेठ साहब, आप इस घाटी और यहां के वातावरण को किसी और दृष्टि से देखते हैं और मैं किसी और!’

‘आखिर तुम्हारी दृष्टि क्या देखती है! कुछ हम भी तो सुनें।’

‘आप जीवन की यात्रा को पूरी करके निर्दिष्ट के समीप पहुंच रहे हैं और मैं अभी यात्रा की तैयारी में हूं। आप उस कोलाहल भरे संसार से उकताकर इन सुनसान घाटियों में चैन और संतोष ढूंढ सकते हैं परंतु मेरे मूक हृदय में घाटियां, जंगली घास के ढेर और ये सूनी पगडंडियां हलचल पैदा नहीं कर सकेंगी। सेठ साहब, आप ही सोचिए, मैंने बी.ए. की शिक्षा प्राप्त की। इस संघर्षमय संसार में मनुष्य को जीवन की सड़क पर भागते देखा। अब यह किस प्रकार हो सकता है कि मैं यह सब देखकर एक कोने में चुपचाप बैठा रहूं। आप ही कहिए, क्या आपके हृदय में इच्छाओं का समुद्र ठाठें नहीं मार रहा? क्या आप अपने बढ़ते हुए कारोबार को देखकर प्रसन्न नहीं होते और इससे अधिक देखने की आपकी अभिलाषा नहीं? इसी प्रकार मैं भी मनुष्य हूँ। मेरी भी इच्छाएँ हैं। यदि बहुत बड़ी नहीं तो छोटी ही सही।’

‘मैं तुम्हारी प्रत्येक बात से सहमत हूं। तुम पढ़े-लिखे हो, सयाने हो, जो चाहो कर सकते हो, परंतु तुम्हें रोकता कौन है?’

‘पिताजी। वह चाहते हैं कि मैं अब उनकी तरह दुशाला ओढ़े घास कटवाता रहूं और शाम को घास के स्थान पर चांदी के सिक्के थैलियों में भरकर घर लौटूं। आप ही सोचिए, ऐसे जीवन में क्या धरा है। कई बार कहा है कि शहर में एक कोठी ले लें, आराम से रहें। स्वास्थ्य ठीक नहीं, इलाज भी हो जाएगा। यहां का काम तो नौकर भी कर सकता है, परंतु वह मानते ही नहीं।’

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