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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

रंजन उत्तर में केवल मुस्करा दिया।

‘एक बार भली प्रकार फिर सोच लो यह न भूलो कि मैंने अपनी हठ के कारण अपना संसार फूंककर रख दिया है।’

‘और आप भी याद रखें कि मैं भी आप जैसे हठी पिता का पुत्र हूं।’

‘तो लो तैयार हो जाओ।’ उन्होंने बंदूक की नली रंजन के सीने के सामने कर दी और बंदूक के घोड़े पर उंगली रख दी। अभी तक उनका इरादा गोली चलाने का न था। वह इसी आशा में थे कि शायद रंजन टल जाए परंतु....

अचानक गोली चली और कोई व्यक्ति लपककर दीपक बाबू के शरीर से लिपट गया। गोली की आवाज सुनकर कुसुम की चीख निकल गई और वह गाड़ी से बाहर निकल आई। वह व्यक्ति शंकर था और गोली चलाने वाला रंजन का एक साथी। गोली चलने से पहले ही शंकर दीपक बाबू के शरीर से लिपट गया और गोली उसकी पीठ में आकर लगी। बंदूक दीपक बाबू के हाथ से छूटकर भूमि पर आ पड़ी। दीपक घुटनों के बल नीचे झुका और शंकर को सहारा देते हुए बोला, ‘यह तुमने क्या किया?’

‘यदि एक मित्र का जीवन बचाने में मुझ-सा अयोग्य व्यक्ति काम आ सका है तो इसे अपना सौभाग्य समझता हूं।’

‘एक जीवन बचाने में दूसरा चला गया तो मिला ही क्या?’

‘तुम्हारी अभी आवश्यकता है बच्चों को, लिली को और चंद्रपुर को। मैं तो एक परदेशी हूं, इस संसार में अकेला, मेरा....।’ यह कहते-कहते शंकर की आवाज रुकने लगी। और उसका चेहरा पीला पड़ने लगा। दीपक ने शंकर की पीठ पर कपड़ा बांधा।

‘कोचवान जरा सहारा दो और इन्हें गाड़ी में ले चलो।’

‘इसकी.... अब....कोई.... आवश्यकता नहीं।’ शंकर ने दीपक का हाथ पकड़ते हुए कहा।

रंजन चुपचाप यह सब देख रहा था। उसने अपने आदमियों को जाने का इशारा किया और शंकर से आकर बोला, ‘मैं बहुत लज्जित हूं। यह सब....।’

‘इसमें लज्जा की क्या बात है। तुम्हारे हितैषी ने तुम्हें बचाने के लिए गोली चला दी और तुम्हारे बाबा के हितैषी ने उसे बचा लिया।’

‘आप मनुष्य नहीं देवता हैं।’

‘तो इस देवता की एक अंतिम बात मान लो!’ शंकर बहुत धीमे स्वर में बोला। उसकी सांस रुक रही थी।

‘कहिए?’

‘आपस की सब शिकायतें दूर करके बाबा के गले लग जाओ। यही मेरी अंतिम अभिलाषा है।’ शंकर ने रुक-रुककर कहा।

रंजन एक क्षण मौन खड़ा रहा फिर शंकर की ओर उसने देखा और दूसरे ही क्षण वह बाबा के निकट आ पहुंचा। रंजन ने गर्दन नीची कर ली और धीरे-से बोला, ‘मुझे क्षमा कर दें।’

दीपक बाबू ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर शंकर की ओर देखने लगे। शंकर के चेहरे पर हल्की-सी प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी और वह मुस्कराने का प्रयत्न कर रहा था। फिर रुकते-रुकते बोला-

‘दीपक, मैंने लिली को तार दिया था। परंतु वह समय पर न आ सकी। हो सकता है कि ट्रेन न पकड़ सकी हो, मेरी जेब में उसके पत्र हैं जो शायद तुम्हारी गलतफहमी दूर कर सकें। मेरी बहन को निर्दोष....।’

‘बस-बस शंकर, मुझे अधिक लज्जित न करो। मेरी गलतफहमी ने मुझे कहीं का न रखा।’

‘तो क्या हमारी मां अभी जीवित है?’ रंजन और कुसुम ने एक साथ पूछा। दीपक मौन रहा। उसने गर्दन झुका ली। उसे मौन देखकर शंकर ने कहा, ‘बच्चों, तुम्हारी मां अभी जीवित है और जल्दी ही तुम्हें मिल जाएगी। आओ.... मेरे पास आओ... मेरे।’ शंकर यह कहते-कहते रुक गया। उसकी सांस फूलने लगी और एक हिचकी के साथ उसकी सांस रुक गई। दीपक ने नब्ज टटोली। नब्ज खो चुकी थी। शंकर की आंखें पथरा गई थी, यह देखते ही कुसुम की चीख निकल गई। रंजन ने लपककर गाड़ी में से कुसुम की चादर निकाल ली और शंकर पर डाल दी।

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