ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
अचानक कुछ घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई दी और थोड़ी देर में दीपक बाबू की गाड़ी घुड़सवारों ने घेर ली। दीपक बाबू ने अपनी बंदूक संभाली। कुसुम डरकर उनसे लिपट गई। उन्होंने उसे तसल्ली देते हुए अलग किया और गाड़ी से बाहर निकले। सामने रंजन घोड़े से उतरकर खड़ा था। सूरज छिपने वाला था परंतु जलते खेतों के प्रकाश में ऐसा जान पड़ता था मानों अभी-अभी दिन निकला हो। रंजन के दहकते हुए चेहरे पर दीपक ने एक नजर डाली और गरजकर बोले, ‘कहो और क्या चाहिए जो इतना कष्ट किया?’
‘शायद आपकी घड़ी सात बजा चुकी।’
‘अभी तो बीस मिनट बाकी हैं।’ उन्होंने घड़ी पर दृष्टि डालते हुए कहा।
‘तो यहां से इतना जल्दी भागने की क्या आवश्यकता थी?’
‘मेरा काम समाप्त हो गया था।’
‘परंतु मेरा काम तो अभी शुरु भी नहीं हुआ।’
‘उसमें अभी बीस मिनट बाकी हैं।’
‘तब तक आप यहां से बहुत दूर निकल चुके होते।’
‘तुम्हें इससे क्या? मैं तुम्हारा गुलाम नहीं। सात बजे हवेली तक पहुंच जाओ, मैंने कागजात दस्तखत करके मुनीमजी को सौंप दिए हैं।’
‘क्या?’
‘अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम कर दी है, जाओ मौज करो।’
‘मौज इन घास के अंगारों पर या हवेली के ढेरों पर?’
‘परंतु आप यह भूलते हैं कि मैं एक डाकू हूं और इन बंजर जमीनों से मुझे कुछ लाभ नहीं। न मैं यहां बैठकर इन्हें फिर से बसा सकता हूं कि कब फसल पके और मेरी झोली में रुपयों की वर्षा हो।’
‘मैं इसका जिम्मेदार नहीं, जो कुछ था वह मैंने दे दिया।’
‘आप घबराएं नहीं। मैं आपके पास कोई शिकायत लेकर नहीं आया कि आपने खेतों को क्यों आग की भेंट कर दिया या हवेली को उड़ाकर मिट्टी के ढेर क्यों लगा दिए।’
‘तो फिर कौन-सी आवश्यकता तुम्हें यहां खींच लाई?’
‘आपका रुपया और गहने जो आप साथ ले जा रहे हैं।’
‘इन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। तुम इन्हें छू भी नहीं सकते।’
‘भला आप ही सोचिए कि यह उजाड़ बन पैसों के बिना किस तरह आबाद होगा? लगी आग तो बुझानी आखिर मुझे ही है।’
‘यह असंभव है।’
‘बिना रुपये दिए आप यहां से नहीं जा सकते।’
‘इसके लिए तुम्हें अपनी मौत से खेलना होगा।’
‘मुझे स्वीकार है।’ और यह कहकर ही रंजन गाड़ी की ओर बढ़ने लगा। जमींदार साहब ने अपनी बंदूक संभालकर उसकी नली रंजन के सामने कर दी। उनके हाथ कांप रहे थे। रंजन के एक साथी ने धीरे-से उससे कहा, ‘पिस्तौल निकाल लो।
‘इसकी आवश्यकता नहीं।’ उसने उत्तर दिया और धीरे-धीरे अपने बाबा की ओर आने लगा। दीपक बाबू हैरान थे कि क्या करें।
अपने बेटे को गोली का निशाना बना दें? परंतु वह तो स्वयं ही बिना किसी हथियार के मेरी ओर बढ़ रहा है। उसे विश्वास है कि मैं उसे कभी गोली नहीं मार सकता और यदि मैं गोली न चलाऊं तो वह सब-कुछ लूट लेगा। उसकी तो मुझे कोई चिंता नहीं परंतु मेरे वचन और मर्यादा का प्रश्न है। मेरे जीते-जी वह कैसे गाड़ी को छू सकता है। वचन देकर मैं कैसे हार जाऊं? एक ओर प्रतिज्ञा और दूसरी ओर कर्त्तव्य। रंजन अब बिल्कुल पास पहुंच चुका था। दीपक बाबू हैरान थे कि क्या करें। उसी समय ऐसा जान पड़ा कोई व्यक्ति उनके बिल्कुल समीप आकर रुका हो। उन्होंने कनखियों से देखा, यह शंकर था। दीपक बाबू गरजकर बोले,‘रंजन अब भी संभल जाओ। यह न समझना कि एक बाप अपने बेटे के खून से हाथ नहीं रंग सकता।’
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