ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘तुम हमसे अलग नहीं हो सकते। जाओ, नाचे गाड़ी खड़ी है।’
‘हरिया के मुख पर प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई।’
‘सच मालिक!’
दीपक बाबू यह देखकर मुस्करा दिए और हरिया दौड़ा हुआ पहाड़ी के नीचे उतर गाड़ी की ओर लपक गया। दीपक बाबू ने घड़ी की ओर देखा। सात बजने में पच्चीस मिनट बाकी थे। वह जोर से चिल्लाए, ‘राहू’, ‘साहू’ और उस आवाज के साथ ही दो व्यक्ति, लंबे-चौड़े सीना ताने ड्योढ़ी से निकल उनकी ओर बढ़ने लगे। उनके पास आकर वे रुक गए और बोले, ‘जी सरकार! उनकी गर्दन झुक गईं थीं।’
‘सब तैयारी है ना?’
‘जी सरकार!’
तो राहू तुम खेतों की ओर जाओ और साहू तुम हवेली में।
यह कहकर दीपक बाबू ड्योढ़ी से बाहर निकल नीचे सड़क की ओर जाने लगे। वे मुड़-मुड़कर हवेली की ओर देख लेते। नीचे नदी बह रही थी। उन्हें ऐसा लगता था मानों मुंडेर पर लिली खड़ी उन्हें विदा दे रही हो। अब वह संसार छोड़कर जा रहे थे परंतु फिर भी उन्हें कोई दुःख न था और न ही उनके मुख पर किसी प्रकार की उदासी थी।
जमींदार दीपक गाड़ी के पास पहुंचे। कुसुम, हरिया उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। सब गाड़ी में बैठ गए। जमींदार साहब मुनीमजी को मौन देखकर बोले, ‘मुनीमजी, कोई ठिकाना बन गया तो शीघ्र ही बुला लूंगा। आप चिंता न करे। कठोर हृदय अवश्य हूं परंतु कृतघ्न नहीं।’
‘मालिक आपके एहसान....।’
‘जाने दो इन बातों को, मेरे पास समय बहुत कम है। देखो रंजन को सब कागजात दे देना, ठीक सात बजे।’
‘बहुत अच्छा।’
‘तो चलूं हजूर!’ कोचवान ने घोड़े की बाग हाथ में लेते हुए कहा।
‘नहीं, अभी थोड़ी देर बाकी है।’
इतने ही में जोर का धमाका हुआ और हवेली का मुंडेर उड़ता हुआ दिखाई दिया। धीरे-धीरे हवेली की मजबूत दीवारें गिरती हुई दिखाई देने लगीं। धमाका इतने जोर का हुआ कि सबका हृदय दहल गया और सब चुपचाप एक दूसरे का मुंह देखने लगे। यह क्या हो गया? कुछ मिनटों में ही घास के खेतों में आग की लपटें उठने लगीं। इसके साथ ही दीपक बाबू ने कोचवान को चलने की आज्ञा दे दी और गाड़ी नदी के किनारे-किनारे दौड़ती दिखाई दी। थोड़ी ही देर में आग की लपटें आकाश से बातें करने लगी। मुनीमजी ने देखा कि एक तेज चाल वाला घोड़ा उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा है। उन्होंने समझा वह रंजन है। वह डर गए और इधर-उधर छिपने के लिए जगह टटोलने लगे, परंतु इससे पहले ही सवार उनके बिल्कुल पास पहुंच गया। यह देखकर उन्हें धैर्य हुआ कि वह शंकर था। आते ही मुनीमजी से उसने पूछा, ‘दीपक बाबू कहां हैं?’
‘घोड़ा गाड़ी में कुसुम को साथ लेकर शहर की ओर गए हैं।’
‘कितनी देर हुई है?’
‘बस थोड़ी ही देर हुई है। क्यों क्या बात है?’
‘उनके प्राण संकट में हैं।’ यह कहते हुए शंकर ने घोड़े को एड़ लगाई और नदी किनारे-किनारे हो लिया।
दीपक बाबू की गाड़ी थोड़ी ही दूर गई थी कि उन्हें पता लगा कि उस सड़क पर रंजन के आदमियों ने घेरा डाला हुआ है। उन्होंने गाड़ी को वापस मोड़ लिया और खेतों की बीच वाली सड़क पर आ गए। घोड़े तेजी से बढ़े जा रहे थे। खेतों की आग से सारा चंद्रपुर लाल दिखाई दे रहा था। हवेली की ड्योढ़ी आग के प्रकाश में साफ दिखाई दे रही थी। ड्योढ़ी के अतिरिक्त हवेली के कई द्वार मिट्टी के ढेर हो चुके थे। शंकर के अस्तबल के घोड़े व्याकुल होकर आग और उसकी गर्मी से दूर भाग रहे थे। वृक्षों पर पक्षी, जो अभी-अभी अपने घोंसलों में लौटे थे, अपने पर फैलाकर दूर उड़ जाने की चिंता में थे। चारों ओर कोहराम-सा मचा हुआ था।
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