ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘देखिए, खेतों में घास कटने लगी कि नहीं।’
‘आज सवेरे से ही शुरु की है।’
‘बंद करवा दो और सबका हिसाब चुका दो। देखो, शाम को पांच बजे से पहले सब मजदूर खेतों को खाली कर दें और गाड़ी....।’
‘मुझे याद है। नदी किनारे वाली सड़क पर...।’
और मुनीमजी जल्दी-जल्दी कमरे से बाहर चले गए। जमींदार साहब ने कुसुम को, जो बिल्ली की भांति दुबकी एक कोने में खड़ी यह सब तमाशा देख रही थी, पास बुलाया और तिजोरी के निचले खाने से एक बंद डिब्बा निकालते हुए बोले, ‘कुसुम, यह धरोहर जो आज इतने समय से मैंने संभाल कर रखी है, तुम्हारी मां जाते समय दे गई थी कि कुसुम जब ससुराल जाने लगे, उसे दे देना, सो संभाल लो। ससुराल जाने में तो अभी देर है।’
‘कुसुम ने डिब्बा हाथ में ले लिया।’
‘और यह नकदी एक मजबूत डिब्बे में सावधानी से रख लो। अब हमारी तो यही पूंजी है।’ और जब दीपक बाबू के नोटों के बंधे हुए पुलिंदे को खींचा तो उसके साथ पड़ा एक चित्र पृथ्वी पर आ गिरा। कुसुम ने उसे उठा लिया।
‘बाबा यह....।’
‘आप तो कहते थे उनका कोई चित्र....।’
‘कहीं इस चित्र की भांति आपने मेरी मां को भी कहीं छिपा तो नहीं रखा?’
‘कुसुम....!’ वह जोर से चिल्लाए और दूसरे कमरे में चले गए। कुसुम ने समझा शायद उसने यह बात कहकर भूल की। वह बाबा के पास जाकर अपनी भूल के लिए क्षमा मांगने लगी।
‘नहीं कुसुम, ऐसी कोई बात नहीं है। दिमाग मेरा ही कुछ....।’
‘इतनी परेशानी में दिमाग भला क्या काम करे....!’ कुसुम ने बात काटते हुए कहा।
‘तुम ठीक कहती हो। अच्छा जल्दी से अपना सामान तैयार कर लो, समय बहुत कम है।’
घड़ी की सुइयां बराबर बढ़ती जा रही थीं। कुसुम के हृदय की धड़कन भी तेज होती जाती थी और साथ ही जमींदार साहब के चेहरे का रंग भी समय के साथ-साथ भयानक आकार धारण करता जा रहा था। पांच बजने में थोड़ी देर थी कि मुनीमजी आ गए। जमींदार साहब का सामान तैयार था। घोड़ा गाड़ी भी तैयार थी। जमींदार साहब ने पूछा, ‘सब काम ठीक हो गया।’
‘जी आपकी आज्ञा का पूरा-पूरा पालन हुआ है। रुपया बांट दिया गया है और खेतों में सबको छुट्टी दे दी गई है।’
‘किसी को यह तो नहीं पता लगा कि यह सब क्यों हुआ?’
‘पूछा तो सबने परंतु टाल दिया गया।’
‘बहुत अच्छा। जल्दी से सामान गाड़ी में लदवा दो।’
मुनीमजी, हरिया और कोचवान ने जल्दी से सामान उठाया और नीचे ले जाने लगे। जब सब सामान नीचे चला गया तो जमींदार साहब बोले, ‘मुनीमजी, आप कुसुम को साथ लेकर नीचे चलिए, मैं अभी थोड़ी देर मैं आता हूं।’
‘मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताइए।’
‘वह काम तुम्हारे वश का नहीं।’
जब मुनीमजी कुसुम को साथ लेकर नीचे गए तो दीपक बाबू ने हवेली के चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई। हवेली की प्रत्येक दीवार उदास खड़ी थी। दूर कोने में उनकी दृष्टि हरिया पर जाकर रुक गई। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। दीपक बाबू यह देखकर पास गए और बोले, ‘क्यों हरिया, ये आंसू कैसे?’
‘मालिक’ और वह फूट-फूटकर रो पड़ा।
‘हरिया, मुझे क्षमा कर दो। मैं तो तुम्हें भूल ही गया था।’
‘मालिक, मेरा क्या होगा?’
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