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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

कुसुम हंसने लगी। वह आज बाबा को एक नए ही रंग में देख रही थी। कुछ देर में बाबा फिर बोले, ‘जी भरकर खा लो। शायद आज इस हवेली में हमारा यह अंतिम जलपान है।’

‘बाबा, यह आप....।’

‘ठीक कह रहा हूं। शाम के सात बजे। उसके बाद पता नहीं क्या हो।’

‘क्यों, आपने क्या सोचा है?’

वह कुर्सी से उठे और हरिया उनके हाथ धुलाने लगा। बाबा मौन थे, मानों कुसुम का प्रश्न उन्होंने सुना ही नहीं। कुसुम ने देखा अब उनके चेहरे का रंग फिर बदल रहा है। चेहरे की आभा कालेपन में बदलती जा रही है। वह सहम गई और उसने अपना प्रश्न दोहराना उचित न समझा। जब वह हाथ धो चुके तो उन्होंने हरिया से मुनीमजी को बुलाने के लिए कहा और कुसुम को अंदर आने का इशारा करके अंदर कमरे में चले गए। कुसुम भी दबे पांव बाबा के पीछे-पीछे कमरे में गई।

‘तो तुम क्या पूछ रही थीं?’

‘कुछ नहीं....।’ कुसुम ने घबराते हुए उत्तर दिया।

‘मुझे अपने पुत्र का स्वागत किस प्रकार करना है?’ वह अलमारी की ओर बढ़े और उसमें से अपनी बंदूक निकाली। कुसुम यह देखकर भयभीत हो उठी। वह बंदूक संभालते हुए बोले, ‘डर गई, घबराओ नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।’

‘परंतु आप....।’

इतने में मुनीमजी भी आ पहुंचे।

आज हम इस हवेली को सदा के लिए छोड़ रहे हैं।

‘क्यों क्या बात है?’ मुनीमजी ने आते ही पूछा।

‘मैंने सारी जायदाद रंजन के नाम करने का निश्चय किया है।’

‘यह आप क्या कर रहे हैं?’

‘जो कुछ कर रहा हूं ठीक ही कर रहा हूं। इससे पहले कि वह इसे लूटकर ले जाए, मैंने यही उचित समझा कि सब कुछ उसको सौंप दूं।’

‘आप एक बार फिर सोच-विचार....।’

‘मुनीमजी, आप जानते हैं कि मेरा प्रत्येक निश्चय अटल होता है।’

‘जी।’

‘यह लो तिजोरी की तालियां और दरवाजा खोलो।’

मुनीमजी ने कांपते हाथों से तालियां पकड़ी और धीरे-धीरे तिजोरी की ओर बढ़ने लगे। बड़ी कठिनता से वह तिजोरी के पास पहुंचे और तिजोरी का दरवाजा खोल दिया। जमींदार साहब ने तिजोरी के पास जाकर उसमें से नोटों का एक पुलिंदा निकाला और बोले-

‘यह पूरे पंद्रह हजार हैं। जिन व्यापारियों से पेशगी रुपया लिया हुआ है उन्हें वापस कर दो। यह लो पांच हजार तुम्हारी सेवा का पुरस्कार!’

‘मालिक, आप यह सब क्यों कर रहे हैं?’

‘सब ठीक कर रहा हूं। देखो सायंकाल ठीक छः बजे घोड़ागाड़ी तैयार रहे परंतु नदी के किनारे सड़क पर।’ दीपक बाबू ने फिर तिजोरी से कागजात निकाले और उन्हें खोलते हुए बोले, ‘मैंने दस्तखत कर दिए हैं, गवाही तुम भर दो और शाम को जब रंजन आए तो ये सब उसके हवाले कर देना ताकि जायदाद पर वह अधिकार पा सके।’

मुनीमजी ने भी कागजात ले लिए और पढ़ने लगे। उनमें सब जायदाद रंजन के नाम कर दी गई थी। वह आश्चर्यचकित थे कि आज जमींदार साहब यह क्या कर रहे हैं, परंतु उनसे पूछे कौन?

‘क्यों मुनीमजी, कुछ और पूछना है?’

‘नहीं तो मालिक, अच्छा मैं चलता हूं।’

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