ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
|
5 पाठकों को प्रिय 239 पाठक हैं |
लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘अच्छा, यह बात है। वह मुझसे भी अधिक चतुर हो गया है। अभी-अभी कुसुम के हाथ संदेश भेजा है कि यदि मैंने किसी प्रकार का छल करने का प्रयत्न किया तो वह मेरे खेतों को जलाकर राख कर देगा। वह मूर्ख क्या जाने कि मैं तो घाट का एक पत्थर हूं। मेरे साथ सिर फोड़कर उसे कुछ न मिलेगा।’
‘परंतु मालिक, दुश्मनों का क्या भरोसा? भगवान न करे, ऐसा कांड हो गया तो फिर क्या होगा? सारी घास सूख चुकी है और कटने ही वाली है।’
‘तुम इसकी चिंता मत करो। घर फूंककर तमाशा देखने में जो आनंद आता है वह लुटाने में नहीं। मैं जीवन में कभी हारा नहीं, न ही इस समय झुकूंगा, समझे?’
दीपक बाबू यह कहकर जोर-जोर से हंसने लगे। मुनीमजी और कुसुम उनके मुख की ओर देख रहे थे। अब वह लाल चेहरा कुछ-कुछ काला पड़ता जा रहा था। कितनी भयानक हंसी थी वह!
सवेरा हुआ तो घर वालों ने उन्हें बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा पाया। परंतु किसी में इतना साहस न हुआ कि उनसे कारण पूछ ले। बहुत देर तक वे इसी प्रकार स्थिर बैठे रहे। जब सूरज बहुत चढ़ आया तो कुसुम उनके पास आकर बोली, ‘नहाने के लिए पानी तैयार है।’
‘कुसुम तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो।’ वह कुसुम का हाथ थामकर बोले और मुस्कराते हुए देखने लगे।
‘और आप हैं कि अपना बिल्कुल ध्यान ही नहीं रखते।’
‘वह कैसे?’
‘देखिए न, आप सारी रात सोए ही नहीं।’
‘नींद! वह तो हमसे रूठ गई है। हमने लाख चाहा कि लौटकर आ जाए परंतु वह एक है कि अपनी हठ पर अड़ी हुई है, कुसुम तुम्हारी मां भी इस नींद की भांति थी जो रूठकर चली गई और वापस न लौटी। वह मुझे पत्थर समझती थी और ऐसा समझते-समझते अपने आप ही पत्थर बन बैठी।’
‘परंतु, इसमें उनका क्या दोष है, भला भगवान के घर....।’
‘कुसुम, ऐसा न कहो मेरे लिए वह अब भी जीवित है।’
‘भले मनुष्य सदा ही जीवित रहते हैं, बाबा!’
दीपक बाबू चुप ही रहे और उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।
‘चलिए पानी तैयार है और जलपान को देर हो रही है। आपने कल से कुछ भी तो नहीं खाया।’
‘तुमने भी तो....।’
‘भला मैं कैसे खा लेती?’
‘अच्छा चलो, आज तुम जलपान के लिए सब सामान अपने हाथ से तैयार करो।’ यह कहकर दीपक बाबू स्नानागार की ओर बढ़े, ‘देखना कोई भी कमी न रह जाए। कल से भूखा हूं।’
कुसुम बाबा की आज ऐसी अनोखे ढंग से बातें सुनकर हैरान हो गई। आज वह प्रसन्न क्यों हैं। उन्हें तो चिंतित होना चाहिए था। आज संध्या को तो उन्हें एक भयंकर विपत्ति का सामना करना है। उसकी समझ में कुछ न आया। वह रसोई में गई और काम में लग गई। जमींदार साहब थोड़ी देर बाद स्नान करके आ गए और कुसुम ने जलपान की सामग्री मेज पर सजा दी। कुसुम ने अनेक प्रकार के भोजन बना लिए थे। उसके मुख की ओर देखते हुए बोले, ‘तो क्या तुम मेरा साथ न दोगी?’
‘क्यों नहीं!’ और वह साथ ही कुर्सी पर बैठ गई। दोनों ने जलपान आरंभ कर दिया। जमींदार साहब ने आज जी-भरकर खाया। उन्होंने देखा कि कुसुम कुछ नहीं खा रही थी, केवल बार-बार उनकी ओर देख लेती थी।
‘क्यों बेटा, खाना क्यों बंद कर दिया?’
‘बस खा चुकी बाबा! मुझे इतनी ही भूख थी।’
‘तुम आजकल की छोकरियां तो चिड़ियों का-सा पेट रखती हो, दो कौर खाए कि पेट भर गया।’
|