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ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर

घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

दीपक बाबू ने उसका सिर नीचे टेक दिया। दोनों बच्चे सहमे से उनकी बांहों में आ गए। उन्होंने आज पहली बार बाबा की आंखों में आंसू देखे। आज दीपक बाबू वर्षों बाद रोए।

उसी समय सबने देखा कि एक मोटर सड़क पर आकर रुकी। सबने उस ओर देखा। दरवाजा खुला और लिली मुनीमजी को साथ लेकर उतरी। वह शीघ्रता से उनके पास पहुंची। दीपक ने अपना मुंह दूसरी ओर फेरा और कहा, ‘लिली देर में पहुंची, शंकर तो....।’

लिली ने जल्दी से शंकर के मुख पर से चादर हटाई और उसके मुंह से लंबी चीख निकल गई। फिर उसके मृत शरीर से लिपटकर रोने लगी। कुछ देर रोने के बाद उठी और दीपक से बोली, ‘यदि आप आज्ञा दें तो मैं इनकी लाश अपने साथ ले जाऊं?’

‘लिली, इसकी आवश्यकता नहीं। यह भार उठाने के लिए मैं अभी जीवित हूं। देखो, तुम्हारे बच्चे तुम्हें किस तरह देख रहे हैं। जाओ और उन्हें मिलो।’

लिली ने घूमकर देखा। रंजन और कुसुम उसको देख रहे थे। दोनों भागकर लिली की बांहों में आ गए और वह उन्हें गले लगाकर चूमने लगी। सब मौन एक-दूसरे की ओर देख रहे थे और सबकी आंखों में आंसू बह रहे थे। तीनों ने मुड़कर दीपक बाबू की ओर देखा। वह शंकर का शव अपने हाथों में लिए हवेली की ओर जा रहे थे। रंजन और कुसुम ने मां को सहारा दिया और ये तीनों भी उनके पीछे चल दिए।

सूरज अपनी सारी किरणें समेट पहाड़ी में छिप चुका था। खेत जलकर राख हो चुके थे और उठता हुआ धुआं सारे आकाश पर छा रहा था। दूर पेड़ की टहनी पर एक पक्षी उसी समय आकर घोंसले पर बैठ अपने दोनों बच्चों को पंखों में समेटे डरी आंखों से चारों ओर देख रहा था।

समाप्त

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