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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘तुम कौन होते हो मेरी जायदाद के इस प्रकार टुकड़े करने वाले?’

‘आपका बेटा।’

‘मेरे लिए तो मेरा बेटा मर चुका। अब तेरा मेरा कोई संबंध नहीं।’

‘आप ऐसा समझ सकते हैं, कानून यह नहीं मान सकता।’

‘परंतु कानून तुम जैसे अपराधी की सहायता करने से पहले तो तुम्हें बड़े घर की हवा खिलाने ले जाएगा।’

‘आपको इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं। मैं अपना धंधा भली प्रकार समझता हूं।’

‘और यदि मैं न मानूं तो?’

‘मुझे कोई अनुचित काम करने का अवसर न दीजिए।’

‘यदि इज्जत का ध्यान है तो ऐसा बेहूदा सवाल तुमने मुझसे क्यों किया?’

‘यह एक व्यक्तिगत बात है। अपने लिए मनुष्य क्या नहीं करता और फिर मुझ-सा गिरा हुआ मनुष्य!’

‘व्यर्थ की हठ मत करो। तुम्हें इस प्रकार कुछ नहीं मिल सकता।’

‘क्या यह आप कह रहे हैं? जमींदार साहब, आप ही तो कहा करते थे कि मैंने जीवन में कभी हार नहीं मानी। चाहे ठीक हो, चाहे गलत, सदा ही अपने प्रयत्न में सफल रहा हूं।’

दीपक बाबू यह सुनकर चुप हो गए और सोचने लगे कि रंजन ठीक ही तो कहता है। मैं भी तो अपनी हठ के लिए सदा इसी प्रकार अकड़ता रहा हूं। यदि मैंने लिली को पाने के लिए नीच मार्ग अपना लिए थे, अपने-आपको एक भला आदमी समझकर तो रंजन जैसे मनुष्य के लिए क्या कठिन है? वह यह सोचकर यकायक डर गए और लुकाछिपी नजरों से रंजन को देखने लगे। बिल्कुल उन्हीं का चित्र था जो अपने पिता की भांति एक चट्टान-सा उनके सामने खड़ा था। अब क्या होगा? यह उसे क्यों कर अपने रास्ते से हटाएं? कुछ सूझता नहीं था उनको।

‘क्यों पिताजी, किस सोच में पड़ गए?’ रंजन ने मौन भंग करते हुए कहा।

‘सोच कैसी? तुम्हारी अशिष्टता पर हंसी आती है।’ उन्होंने फीकी-सी हंसी होंठों पर लाते हुए उत्तर दिया।

‘हंसी आती है या चक्कर आ रहे हैं?’

यह सुनकर दीपक बाबू फिर गंभीर हो गए और गुस्से में भरे रंजन की ओर देखते हुए बोले, ‘धूर्त्त कहीं का। देखो, जायदाद का बंटवारा तो मैं किसी भी दशा में नहीं कर सकता। यदि चाहो तो अपने अधिकार का मूल्य कुछ नकद रुपयो में ले लो और अपना संबंध सदा के लिए मुझसे अलग कर लो।’

‘मुझे स्वीकार है, कहिए क्या दीजिएगा?’

‘पांच हजार।’

‘आप नीलामी की बोली दे रहे हैं या मेरी कीमत?’

‘तुम्हारी कीमत।’

‘तो इसे अपनी पहली किस्त समझिए।’

‘नहीं। पूरा भुगतान।’

‘परंतु मेरे भुगतान के लिए तो ऐसे कई पांच हजार आवश्यक हैं।’

‘इतनी तो आमदनी नहीं जितना तुम लेना चाहते हो।’

‘आमदनी नहीं, परंतु तिजोरियां तो भरी पड़ी हैं, अगर वे खाली हो गई तो मैं अपनी पेंशन लेना बंद कर दूंगा।’

‘यह न भूलो कि कुसुम अब बड़ी हो गई है और मुझे उसकी शादी का प्रबंध करना है।’

‘मुझे और किसी से क्या सरोकार। मुझे तो मेरा हिस्सा चाहिए।’

‘जान पड़ता है कि तुम मेरी लाचारी का दुरुपयोग करना चाहते हो।’

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