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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘यह तो आप भली प्रकार समझते हैं। धमकियों का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं होता।’

‘कहो, तुम्हारा अपना क्या विचार है?’

‘बीस हजार।’

‘असंभव।’

‘आप यह न भूलिए कि मैं एक लुटेरा हूं और मेरा एक इशारा आप लोगों की तिजोरियां खाली कर देने के लिए बहुत है।’

‘मेरे जीते-जी किसका साहस है जो उन्हें हाथ लगाए?’

‘सामना करने में आपके प्राणों का भी भय है और उस अवस्था में मैं सारी जायदाद का मालिक बन सकता हूं।’

‘रंजन!’ दीपक बाबू क्रोध में चिल्लाए।

‘अशिष्टता के लिए क्षमा! इस समय रंजन नहीं, राजू लुटेरा बोल रहा है।’

दीपक बाबू की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और वह अपना सिर पकड़े पलंग पर बैठ गए। थोड़ी देर बाद बोले, ‘रंजन अब तुम जाओ और मुझे सोचने के लिए समय दो।’

‘अधिक समय नहीं दे सकता जिसमें आपको कोई कानूनी कार्यवाही करने का अवसर मिल जाए।’

कुछ देर चुप रहकर दीपक बाबू ने कहा, ‘तो परसों संध्या समय ठीक सात बजे अंधेरा होते ही अपने प्रश्न का उत्तर ले जाना।’

‘बहुत अच्छा। परंतु ध्यान रहे कि यदि किसी प्रकार की चालाकी करने का प्रयत्न किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा।’

‘अब तुम जाओ।’

रंजन मुस्कराया। उसने खिड़की से बाहर छलांग लगा दी और थोड़ी देर तक घोड़े की टापों की आवाज़ सुनाई देती रही जो धीरे-धीरे दूर होती गई। दीपक बाबू का दिल बैठा जा रहा था और वह चकराकर पलंग पर गिर पड़े।

कुसुम ने देखा कि रंजन के जाने के बाद कमरे में सन्नाटा छा गया है। धीरे-से दरवाजा खोलकर वह कमरे में आई और बाबा के पलंग की ओर बढ़ी। पास जाकर उसने कहा, ‘बाबा, बाबा, क्या बात है?’

‘कुछ नहीं बेटा, ऐसे ही भाग्य का खेल है।’ और यह कहकर दीपक बाबू ने कुसुम को छाती से लगा लिया और उसके बालों पर प्यार भरा हाथ फेरने लगे। कुसुम बाबा की छाती पर सिर रखकर जोर-जोर से रोने लगी।

‘अरे, इसमें रोने की क्या बात है। तू चिंता न कर, बाबा के होते तुझे कोई दुःख नहीं पहुंचेगा।’

‘मुझे अपने दुःख की चिंता नहीं बाबा। रंजन के कारण आप....।’

‘वह पागल क्या करेगा। तुम इसकी चिंता न करो।’

‘नहीं बाबा, मैं सब सुन चुकी हूं। वह अब आपके काबू से बाहर है और किसी भी समय आपको हानि पहुंचा सकता है।’

‘तुम ठीक कहती हो। अब तुमसे क्या छिपाऊं। मैं भी बहुत घबरा-सा गया हूं। समझ नहीं आता कि क्या करूं?’

‘आप उसे थोड़ा-सा हिस्सा देकर सदा के लिए जान छुड़ा लें। कुछ बदनामी अवश्य है परंतु तबाही से तो अच्छा है।’

‘कुसुम, तुममें अनुभव की बहुत कमी है और तुम उस लड़के को नहीं समझतीं। अपना हिस्सा लेने के बाद भी वह हमें कभी चैन से न बैठने देगा।’

‘तो फिर रुपया ही देकर जान छुड़ाएं।’

‘रुपया। वह तो अपनी पेंशन समझकर मुझसे जब चाहेगा ले लेगा।’

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