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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

14

इस प्रकार दिन बीतते गए। रंजन ने अपना वायदा पूरा न किया और न आया। कुसुम ने सोचा, बाबा सच ही कहते थे कि उसने केवल मेरा मन रखने के लिए मुझे वचन दे दिया। ऐसे मनुष्य का क्या विश्वास?

रात्रि का समय था। कुसुम सो रही थी। किसी की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ी। उसने बाबा के कमरे में कुछ शोर-सा सुना। पहले वह डरी, फिर साहस करके वह धीरे-धीरे पग बढ़ाती दरवाजे तक पहुंची और कान लगाकर सुनने लगी। दूसरी आवाज रंजन की थी। बाबा कह रहे थे-

‘किसी और वक्त आ जाते। इस समय आधी रात को आने का मतलब?’

‘चोर और डाकुओं के लिए तो रात ही है जो किसी सेठ से मेल-मुलाकात कर सकें। दिन के समय तो आराम करना होता है।’

‘या उल्लुओं की भांति मुंह छिपाना होता है। अपने-आपको ऐसे नीच पेशे का सरदार कहते तुम्हें लज्जा न आती होगी?’

‘लज्जा तो आपने बचपन में ही उतार ली।’

‘निर्लज्जता की भी कोई सीमा होती है।’

‘आप ही की दी हुई शिक्षा पर चल रहा हूं।’

‘बेहूदगी छोड़ दो और मतलब की बात करो। ऐसा क्या काम आ पड़ा जो तुम इतनी रात गए...।’

‘हां, कहिए। मतलब की बात करो। मैं तो जल्दी में हूं और आप भी।’

‘कहो, क्या कहना चाहते हो?’

आप यह जानते ही हैं कि मैं आपका नालायक बेटा हूं और आपको मुझसे कोई आशा नहीं जो एक बाप को अपने होनहार बेटे से होती है। आपको तो मुझसे हानि का ही भय है।

‘मैं तुम्हारी बुद्धिमानी की प्रशंसा करता हूं जो तुम यह सब कुछ समझते हो।’

‘और यह भी हो सकता है कि आप मुझे नालायक बेटा ठहराकर अपनी जायदाद से अलग रखने की चिंता में हों।’

‘इसमें क्या संदेह है? तुम्हारा और मेरा रास्ता अलग-अलग है। न मैंने तुम्हें कभी किसी बात से रोका है और न तुम्हें मेरे कामों में बाधा डालने का अधिकार है।’

‘परंतु मैं अपने कामों में तो दखल दे सकता हूं?’

‘आखिर तुम चाहते क्या हो?’

‘इससे पहले कि आप मेरे अधिकार छीनें, मैं अपना जीवन बदल लेना चाहता हूं।’

‘वह कैसे?’

‘इस तरह चोरों की तरह छिप-छिपकर रहने से तो यही अच्छा होगा कि मैं अपनी जमींदारी संभाल लूं।’

‘परंतु तुम जो सपना देखना चाहते हो वह कभी पूरा न हो सकेगा।’ दीपक ने क्रोध में कहा।

‘वह पूरा होकर रहेगा।’ रंजन ने पैर फर्श पर पटकते हुए कहा।

‘मेरी इच्छा के बिना तुम कुछ नहीं कर सकते।’

‘शायद आप भूल रहे हैं कि यह जायदाद पैतृक है। आपकी संपत्ति नहीं। मैं अपना अधिकार मांगता हूं। भीख नहीं।’

‘भीख मांगी होती तो शायद दया करके दे ही देता। परंतु अब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं।’

‘पिताजी, मैं नहीं चाहता आपकी यह वर्षों से बसी हुई हवेली और यह लहलहाती बस्ती मेरे हाथों से नष्ट हो। आपकी और मेरी भलाई इसी में है कि आप मेरा अधिकार मुझे सौंप दें।’

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