ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘तुम्हें उस डाकू पर विश्वास है और मुझ पर नहीं?’ बाबा क्रोध से कड़ककर बोले।
‘नहीं, नहीं... हो सकता है कि मैं गलत होऊं।’ कुसुम सहम गई और चुप हो गई। थोड़ी देर बाद बाबा ने कहा, ‘और क्या-क्या बातें हुईं?’
‘विशेष कोई बात नहीं। मैं उसे समझाने की कोशिश करती रही, पहले तो बोला कि मेरा जीवन तुम्हारे बाबा ने नष्ट किया है। मैंने यह सुनते ही उसे बहुत खरी-खोटी सुनाई और नाराज होकर बाहर निकल आई। फिर वह मुझे मनाने आया और अपनी भूल मान गया। तुम ही कहो बाबा, वह कितना मूर्ख है! क्या कोई पिता अपने पुत्र को ऐसे भयानक रास्ते पर डाल सकता है? पिता तो पिता, कोई दुश्मन भी किसी के बच्चे का जीवन इस प्रकार नष्ट नहीं कर सकता।’
कुसुम यह कहते-कहते रुक गई। दीपक बाबू ने मुंह फेर लिया। वह बोले नहीं।
‘क्यों, क्या बात है बाबा?’
‘कुछ नहीं... कुछ नहीं... ऐसे ही...।’
‘मैं भी कितनी पागल हूं। बिना सोचे-समझे जो मुंह में आ रहा है, बके जा रही हूं। चलिए अंदर चलकर आराम कर लीजिए।’
‘हां, तो उसने... तुम्हें पहचाना कैसे?’ दीपक बाबू ने बात बदलते हुए पूछा और तख्त पर से उठ खड़े हुए। कुसुम ने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘आपको यह बताना तो भूल गई कि यह रंजन वही था जिसने ट्रेन में मेरे गले का हार उतारने का प्रयत्न किया था।’
‘मैं तो उसी दिन....।’ और वह चुप हो गए।
भगवान की करनी भी ऐसी हुई जो मैंने इतने साहस से काम लिया। यदि मैं चीख पड़ती और दूसरे यात्रियों को पता लग जाता तो भैया का क्या होता?
‘जेल, और क्या?’
‘हां बाबा।’ कुसुम बहुत धीमे स्वर में बोली और दूसरे कमरे में चली गई।
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