ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
भले ही गंगा आज देव का प्यार न पहचानती हो पर सच्चा प्यार तो देव ने गंगा से ही किया है। ये अलग बात थी कि सोचा कुछ था हुआ कुछ और। सोचा था कि गायत्री से प्रेम होगा, उससे ही शादी होगी पर ऐसा न हुआ। देव मन ही मन गायत्री को पसन्द करता था पर ..अब ये सब बातें निरर्थक और अर्थहीन हैं। प्यार और विवाह तो सिर्फ एक से ही किया जा सकता है।
‘भाई साहब! ये प्यार-व्यार तो एल्जेबरा की तरह बड़ी कन्फयूजिंग चीज मालूम होती है!’ मैंने सोचा....
देव ने गायत्री का मन पढ़ लिया।
‘सॉरी! आइ ऐम रियली सॉरी! मैं जानता था कि तुम्हें ये बात पसन्द नहीं आएगी!’ देव मुड़ा गायत्री से विपरीत दिशा में और बड़े ही धीमें स्वर में बोला बुदबुदाकर जैसे खुद से ही बात कर रहा हो।
फिर गायत्री मुड़ी देव की ओर झटके से ....
वो मुस्कराने लगी जैसी कोई बड़ी मस्ती की बात मन में आई हो।
‘....मैं तुम्हारी तरह इमोशनल नहीं कि हर एक बात को सीने से लगा लूँ! दिल पर ले लूँ! मैं साइंस की स्टूडेन्ट हूँ! साइन्स वाले तुम आर्ट साइड वालों की तरह ज्यादा सेंटी नहीं होते! समझे!’ गायत्री ने गर्व भरे स्वर में कहा रोब जमाते हुए ऊँची आवाज में बाईं ओर थोड़ा मटककर जैसे उसे बड़ा मजा आ रहा हो।
‘ आह ...!’ देव ने एक लम्बी ठण्डी साँस छोड़ी। वो खुश था कि उसके मन का बोझ भी उतर गया और गायत्री को बुरा भी नहीं लगा।
‘‘अब तो मुझे कोई दूसरा देव ही ढूँढना पड़ेगा!‘‘ फिर गायत्री बोली अच्छे मूड में आकर थोड़ा मुस्कराकर।
|