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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

रात के करीब 1 बजे तक मेरे पैरों ने जवाब दे दिया। तलवे दर्द करने लगे। मेरे कदम और धीमे हो गये। अब वो मुझसे कुछ दो चार कदम आगे आगे चल रही थी। हाथों में अपने सेन्डल लिये... थोड़ी लहराती, लड़खड़ाती सी चाल के साथ।

‘यामिनी तुम थकी नहीं क्या?’ मैं घुटनों पर झुक गया।

‘ना, क्यों तुम थक गये?’ इस कदर हैरानी के साथ वो वापस पलटी कि मुझे जवाब भी अलग सा देना पड़ा।

‘हाँ, लग तो रहा है।’ मैंने हाँफते हुए कहा। ‘मैं अपनी पूरी जिन्दगी में इतना नहीं चला और न इतनी रात तक घर से बाहर रहा।’

‘हम्म, लग तो रहा है।’ वो मेरी हालत पर हँसने लगी।

‘आई मीन.... घूमता तो था लेकिन इतना नहीं।’ मैंने तुरन्त ही अपने लफ्ज सही किये। उसके सामने शर्मिन्दा नहीं होना चहाता था। ‘एक्चुअली शिमला में आप इतनी रात घूम भी नहीं सकते। थोड़ी ठण्ड होती है।’

‘ओके तो क्या करना है?’ वो मेरे पास आकर बोली।

‘वापस चलें? मुझे नींद आ रही है। इतनी रात तक जागने की आदत नहीं है।’ मैंने बेचारगी से कहा।

‘अभी बस 1 ही तो बजे हैं’

‘हाँ, फिर भी, इस वक्त तुम्हारा यहाँ घूमना सेफ नहीं है। पुलिस के भी चक्कर लग रहे है बेकार प्राब्लम हो जायेगी।’

‘ओ के! ओ के!’ अघूरे मन से उनसे मेरी बात मान ली और एक टैक्सी को हाथ दे दिया।

‘वाय आर यू सो सिन्सियर?’ खुद में बडबड़ाते हुए उसने टैक्सी का दरवाजा खोला।

‘क्या?’

‘कुछ नहीं। ठीक है, लेकिन मैं जाकर सोना नहीं चाहती प्लीज, तुम सो जाना।’

हम उसकी इसी शर्त पर वापस आये। वो मेरे ही कमरे में रुकी, उसे वाकई सोना नहीं था। रात भर वो टीवी पर जाने कौन-कौन से प्रोग्राम देखती रही। अपने पलंग के दूसरे कोने पर मैं अपने तकिये को सिफ पर भीचें जा रहा था। कितनी कोशिशों के बाद मैं उस रात कच्ची पक्की नींद ले सका।

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