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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

‘जानता हूँ कि उसे कुछ ज्यादा ही उम्मीदें है मुझसे, लेकिन ये नहीं जानता कि मुझसे ही क्यों?’

‘क्योंकि तुम हो इस लायक।’

उसका अचानक दिया जवाब इस बात का सबूत था कि वो संजय की बदलती चाहतों के बारे में कुछ नहीं जानती।

‘तुम्हें पता भी है कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ?’ उस पर तरस के साथ ही थोड़ी नाराजगी भी हो रही थी मुझे। उसने खाली से चेहरे के साथ मेरी तरफ देखा और फिर एक यकीन के साथ-

‘नहीं जानती लेकिन ये जानती हूँ कि वो हमारे जैसे लोगों पर.... तुम्हारे जैसे लोगों पर निर्भर करता है।’

‘वो कैसे? इन लोगों के पास तो बहुत ऑप्शन होते होंगे।’

‘हाँ, होते हैं, लेकिन हर किसी में वो बात नहीं होती कि कुछ हासिल कर सके। जिनमें होती है उनमें से कुछ कमजोर भी पड़ जाते हैं। इतना आसान नहीं होता अपना परिवार, दोस्त, रिश्तेदार, प्यार, शादी सब कुछ सिर्फ एक कामयाबी के लिए दाँव पर लगा देना।’ वो कहीं खो चुकी थी अपनी बात खत्म करते-करते। पहली बार उसी दिन मुझे एहसास हुआ था कि वो अपने आप से खुश नहीं है। काफी थकान थी उसके जगमगाते चेहरे के पीछे। ‘सबसे अच्छी बात ये है कि संजय ने तुम्हें कामयाब बना देना तय कर लिया है और इसका मतलब ये है कि अब तुम्हें कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता।’

उसने फिर नजरे डूबते सूरज की तरफ कर लीं।

मेरी नजरों ने उसकी नजरों का पीछा किया। सामने नजारा बदल चुका था। सूरज ने खुद को वक्त की लहरों के हवाले कर दिया था। दिन भर वो अपनी तकदीर से लड़ता रहा लेकिन खुद को इस अन्धेरे में डूबने से अब और नहीं रोक सकता। किसी थके- हारे सिपाही की तरह उसका चेहरा सुर्ख हो चुका और हर बीतते पल के साथ वो नीचे सरकता जा रहा था। सैकडों लोगों की नजरों के सामने वो उन शान्त, अन्धेरी लहरों में समा गया।

‘और लोग किस चाव से इस नजारे को देखते हैं।’ मैं बडबड़ा गया। ‘मैं ये नहीं बनना चाहता था यामिनी।’

‘क्या?’वो चौंक सी गयी।

‘मैं मॉडल नहीं बनना चाहता था।’ सिर झुकाये मैंने उँगली पर रेत से कुछ लकीरें खीचीं।

‘तो?’ दिलचस्पी के साथ वो मेरी तरफ मुड़ गयी।

‘तुम हँसोगी मुझ पर।’

‘नहीं हसूँगी। बताओ न।’

‘मैं एक पेन्टर बनना चाहता था। एक आर्टिस्ट, एक चित्रकार।’

‘चित्रकार?’ वाकई लफ्ज तो बेवकूफाना सा था। उसकी आँखें और मुँह खुला ही रह गया कुछ पलों को। हो सकता है कि वो मेरे जवाब से सहमत नहीं थी। हो सकता है उसकी पहली प्राथमिकता पैसा और शोहरत ही रही हो। वो चुप थी।

‘और तुम ये ही बनना चाहती थी जो तुम हो?’

उसने थोड़ा सोचा।

‘हाँ लगभग... लेकिन जो सोचा था वो बहुत अच्छा था। इतना... इतना बुरा नहीं था कि कभी-कभी हमें लगने लगे कि हम ये कर ही क्यों रहें हैं। सब से झूठ बोलते फिरते हैं... कभी-कभी खुद से भी।’ वो फिर से फिलोसिफिकल हो गयी थी।

यामिनी ने बातों-बातों में मुझे बताया कि संजय कुछ लोगों से मुझे मिलवाना चाहता है। कुछ लोगों को मैं बहुत अच्छा लगा था और उनसे दोस्ती या मेलजोल बढ़ाना मेरे करियर और संजय की एजेन्सी के लिए काफी फायदेमंद रहेगा। यही उसके काम करने का तरीका था और यही वजह थी उसकी कामयाबी की। लोगों को लोगों के लिए ही इस्तेमाल करना। खुद यामिनी ने भी मुझे इसी राह पर चलने की नसीहत दी।

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