ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
23
शनिवार करीब 2 30 बजे
मैं सी.एस.आई. एयरपोर्ट के बाहर खड़ा इन्तजार कर रहा था। यामिनी ने मुम्बई आने और जाने के एयर टिकट बुक किये थे और साथ ही कहा था कि उसका कोई दोस्त मुझे एयर पोर्ट पर लेने भी आयेगा। मुझे उसी दोस्त का इन्तजार था। मैं मुम्बई पहुँच गया हूँ ये बताने के लिए जैसे ही मैंने अपना मोबाइल जेब से निकाला एक स्कार्पियो मेरे पास आ कर रुकी।
33-34 साल का, आकर्षक सा आदमी, अपनी आँखों से गौगल निकालते हुए उससे बाहर आया।
‘अंश?’ मुझे पहचानने की कोशिश करते हुए उसने सवाल किया।
‘जी।’
उसका मोबाइल शायद होल्ड पर था। उसने मोबाइल दोबारा कान पर लगाया और किसी से बात करने लगा। उसकी नजरें मुझ पर जमी थीं और उसकी बातों का विषय शायद मैं ही था।
‘हाँ तस्वीरों में जैसा देखा था उससे भी बेहतर है। कद, कान्फीडेन्स सब कुछ हमारे मुताबिक है। आल इन आल तुम वो ले आयी हो, पार्टी को जिसकी जरूरत थी। थैंक्स!’ कॉल काटते ही वो मेरे पास आया।
‘हॉय, मैं संजय हूँ। यामिनी का दोस्त।’ उसने हाथ मिलाया ‘मुझे आने में देर तो नहीं हुई?’
‘नहीं।’
जैसा मैंने सोचा था ये उसके बिल्कुल विपरीत था। उसके कपड़े, यहाँ तक कि जो कार वो चला रहा था वो भी उसके व्यवहार से कोई मेल नहीं खाती थी। उसे कोई घमण्डी और नाज नखरे वाला इन्सान होना चाहिये था लेकिन वो बेहद खुले मिजाज का आदमी निकला।
मैंने उससे उसके बारे में एक लफ्ज नहीं पूछा लेकिन उसने सब कुछ खुद ही बता दिया।
‘जिस दिन से तुम्हारी तस्वीरें देखी थी तुमसे मिलने का मन था लेकिन मैं यहाँ था ही नहीं। तो बोलते हुए उसने मेरी तरफ देखा और- तुम शिमला से हो?’ एकदम से उसने बात पलट दी।
‘जी हाँ ! और आप?’
‘मैं, मैं बरेली से हूँ।
‘बरेली से?’ मैं मान ही नहीं सका। ‘आप लगते तो नहीं।’ मैंने नकारती हुई मुस्कुराहट के साथ कहा।
‘क्यों? मैं क्यों नहीं हो सकता बरेली का? मैं यहाँ नौकरी ढूंढ़ने आया था यहाँ। यामिनी जी से मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने मुझे नौकरी दिला दी, बस! तब से यहाँ हूँ।’ उसने गँवार से लहजे में कहा।
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