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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

 

15

एक हफ्ते बाद। सुबह 3.55 पर


मनोज ने मेरे घर के सामने बाइक रोकी।

‘बॉय।’

‘हाँ चल कल मिलते हैं।’ मैंने जवाब दिया।

मेरे हाथ जब तक गेट को छूते, पीछे से किसी ने मेरा नाम लिया। मैं आवाज की दिशा में पलटा। सुनसान, हल्के कोहरे से रंगी सड़क के बीचों बीच एक सफेद रंग की चमचमाती आई 10 खड़ी थी। ये समीर था।

‘हॉय अंश।’ उसने कार से पैर बाहर रखा। ब्लू जीन्स, ब्लू जैकेट और अन्दर काली स्वेटर। परफेक्टली ड्रेस-अप लेकिन थोड़ा अस्त-व्यस्त सा। थका सा।

‘हॉय अंश।’

‘हॉय।’ मेरे लफ्ज भी उतने ही थके थे जितनी मेरी आवाज और मेरा शरीर। रात भर कॉल सेन्टर में ग्राहकों से बात कर कर के मेरा सिर भारी था। मुझे उस वक्त सिवाय अपने बिस्तर और नींद के कुछ और सूझ नहीं रहा था लेकिन समीर बिल्कुल फ्रेश था। उसके ब्रान्डेड परफ्यूम और बियर की मिली जुली महक दो कदम दूर से ही आ रही थी। हमेशा की तरह इस बार भी वो एक लम्बी सी मुस्कुराहट के साथ मेरे सामने था ताकि अपने अन्दर की जलन को छुपा सके।

‘कहीं जा रहा है?’ मैंने पूछा

‘नहीं यार। अपने एक दोस्त की लेट नाईट पार्टी से लौट रहा हूँ। एण्ड इट वाज आसम!’ दोनों हाथों को तानकर अंगडाई लेते हुए उसने जवाब दिया। ‘ड्रिंक्स। ड्रिंक्स। पार्टीस....एण्ड गर्ल्स। पता है, यही कुछ चीजें हैं जो आपको एहसास कराती हैं कि आप यूथ हैं, यंग हैं। जिन्दगी की सारी खुशियाँ इन्हीं में खोयी होती हैं और इन्हीं से मिल जाती हैं।’

‘हो सकता है।’ मैंने जवाब तो मजाक में ही दिया था लेकिन फिर भी उसकी बातों की लय बिगाड दी। हाथों को दोबारा जैकेट की जेब में डालकर, मेरी बात को ज्यादा तूल न देते हुए-

‘मैंने सुना कि तूने मनोज के साथ कॉल सेन्टर में जॉब स्टार्ट कर दी है?’

‘हाँ।’

‘ओ के।’ यहाँ वहाँ नजरें किये जैसे कुछ खास दिलचस्पी नहीं है उसे इस सवाल में लेकिन फिर भी पूछ रहा है। ‘तो...है कैसा? मलतब कॉल सेन्टर्स तो मौज मस्ती के सेन्टर होतें हैं ना! यंगस्टर्स। लड़के-लड़कियाँ। दोस्ती.... नाईट शिफ्ट। बेहतरीन माहौल। है ना?’

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