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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

‘कम से कम मुझे वजह तो दो! आखिर मैंने किया क्या है?’ मैं चिल्ला पड़ा! माँ ने बढकर मेरी दाँयी बाँह पकड़ ली।

‘अंश, उसे थोड़ा वक्त दो।’ मुझे बाहर की तरफ खींचने लगीं।

‘नहीं! मैं इन्तजार नहीं करूँगा.... मुझे मेरा जवाब इसी वक्त चाहिये!’ मैंने बाँह को झटका देकर माँ से छुडा लिया। ‘इसने मुझे गुनहगार बना दिया, मेरी खुद की नजरों में ही! आखिर तुम्हारा भरोसा भी कम पड़ ही गया न?’

फिर वही खामोशी। सोनू के साथ बाकी सब भी खामोश हैं। मेरे सवालों के जवाब यहाँ मिलने ही नहीं शायद! मुझे वापस ही चले जाना चाहिये। माँ एक किनारे खड़ी है। मैं वापस जाने के लिए मुड गया, शायद यही सही होगा।

‘मैं तुम पर यकीन करती हूँ!’

एक काँपती हुई सी आवाज ने फिर एक शुरूआत की। मेरे कदमों को रोकने के लिए ये लफ्ज काफी है। ‘मैं जानती थी कि आप अपनी खुशी के लिए कभी मुझे नहीं छोडेंगे इसलिए मैं जा रही थी.... ताकि आप यामिनी के साथ...।’ सिसकियों से उसकी बात अधूरी रह गयी। ‘मैं ये साबित नहीं कर रही थी कि आप एक फ्लर्ट हैं.... मैं ये साबित कर रही थी कि... कि मैं आपको अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा प्यार करती हूँ लेकिन आप...।’ वो फफक पड़ी।

‘क्या?’ मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया। आज पहली बार इस लड़की को थप्पड मारने का मन कर रहा है।

ये वजह है ऐसा कदम उठाने की? तुम पागल हो क्या? ये बात मैं कहने वाला था लेकिन राय साहब ने मेरे शब्द चुरा लिये। अपने हाथ हवा में उठाये वो कुछ इस तरह देख रहे हैं सोनू को मानों उन्हें किसी ने बुरी तरह उल्लू बना दिया हो।

कुछ देर उन्हें भी लगी समझने में कि आखिर वो क्या चाहती है।

उन्होंने सोनू का बैग मेरे सामने ला रखा और-

‘ये अपनी बीवी का बैग खुद ही उठा कर ले जाओ! मैं तुम्हारा नौकर नहीं हूँ।’ मैं तो अब तक होश में ही नहीं कि आखिर हो क्या रहा है? हाँ लेकिन जैसे ही राय साहब ने उसका हाथ मेरे हाथ में दिया, कुछ महसूस हुआ। ‘सोनू रिश्तों में हर बार आत्मत्याग जरूरी नहीं... कभी-कभी उसके लिए लड़ना भी पड़ता है जिसे तुम चाहते हो।’ अब उन्होंने मेरी तरफ देखा- ‘इस पागल को तुम्हीं ले जाओ.... मेरे बस की तो नहीं है ये।’

सोनू की आँखें अब तक भीगीं ही हैं लेकिन उसकी वो छोटी सी मुस्कान इन ढेर सारे आँसुओं से ज्यादा सजीव है। मैंने एक बार उसके माथे को चूमा।

‘ये दूसरी बार तुम मेरी जान लेने वाली थीं। आगे से याद रखना कि सिर्फ एक तुम ही मेरी सच्ची खुशी हो।’

‘व्हील चेयर वाली खुशी?’

‘क्यों नहीं? कभी अपने पैरों पर चलती थी और अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।’ मैंने पीछे जाकर उसकी कुर्सी के हत्थे पकड़ लिये।

‘थोड़ी पागल है न?’

‘हाँ है तो लेकिन थोड़ी नहीं, बहुत पागल है लेकिन वादा करो कि तुम बुढ़ापे तक मेरा दिमाग नहीं खाओगी ये सब कहकर।’ मैं और सोनू वार्ड की दहलीज तक पहुँचे थे कि मैंने पीछे पलटकर एक बार उस भीड़ की तरफ देखा। सब के चेहरों पर तसल्ली है लेकिन राय साहब अब तक सन्तुष्ट नहीं इसलिए- ‘आते समय उसका बैग भी ले आना पॉप्स!’ मैंने उन्हें आदेश दिया।

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