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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

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हॉस्पीटल !

इतनी नफरत तो मुझे श्मशान से भी नहीं जितनी इस लफ्ज से है। रोते-दम तोड़ते लोग... बीमारियाँ.... खून! लेकिन एक और वजह थी इस जगह से नफरत करने की.... मेरे पिता की मौत।

मेरे साथ ऐसा कुछ पहली बार नहीं हो रहा था, इससे पहले मैं 14 साल की उम्र में अपने पापा को भी दम तोड़ते देख चुका था। एक सर्द रात मेरे पिता भी किसी अस्पताल में अपनी मौत लड़ रहे थे। उस रात भी सब कुछ ऐसा ही था.... लोगों की भीड़, दिलासा, आँसू, डर और किसी की दाँव पर लगी जान। सब हमें ढांढस बँधा रहे थे कि वो ठीक हो जायेंगे लेकिन अस्पताल से सिर्फ उनकी लाश ही वापस ला सके थे हम।

इस बार मैं न जाने क्यों सब्र नहीं कर पा रहा था, मैं कोई उम्मीद नहीं लगा पा रहा था और वो एक ही सवाल बार-बार मेरे मुँह निकल रहा था-

‘उसने ऐसा क्यों किया?’ मेरे शब्द बहुत धीमे थे....

‘वो कुछ दिनों से परेशान थी...’ .....लेकिन मिसेज राय ने सुन ही लिये।

‘मुझे भी लग रहा था लेकिन अपनी परेशानी मुझे बताने के बजाय ये कदम उठाया उसने?’

‘वो बचपन से ऐसी ही है।’ एक दर्दभरी बोझिल सी मुस्कान के साथ उन्होंने खुद को सम्हाला। और- ‘अकेली लड़की थी, कभी कोई खुशी अधूरी नहीं रही उसकी.... इसलिए न तो उसे शिकायत करना आता है और न ही समझौता करना। मैं जानती हूँ कि उसने तुमसे कुछ नहीं कहा होगा।’ मिसेज राय का चेहरा हम सभी से ज्यादा शान्त था। जो सवाल हम सब को परेशान किये था वो उनके चेहरे पर कहीं नहीं मिला। न जाने क्यों?

मैं उनके पास ही बैठ गया।

‘सोनू ने आप से कभी कुछ ऐसा बताया?’

‘हाँ, उसने कुछ दिन पहले बताया था कि उसने तुम्हें लेकर कुछ सुना है...’

‘मुझे लेकर?’ पिछले कुछ दिनों की घटनायें एक साथ मेरे दिमाग से गुजर गयीं। ‘मुझे और यामिनी को लेकर?’ मुझे इस तुक्के पर काफी यकीन था।

‘नहीं, मुझे नहीं लगता ये वजह हो सकती है। उसके लिए यामिनी किसी खेल जैसी थी समस्या जैसी नहीं।’

‘तो फिर क्या वजह थी?’ मैं पहले से ज्यादा बैचेन था, वो कुछ तो जानती हैं। उधर मिसेज राय का चेहरा भी मुझे कुछ यूँ देखने लगा जैसे मुझ ही से पूछ रहीं हों कि क्या तुम वाकई कुछ नहीं जानते?

‘अभी पिछले हफ्ते वो किसी रिकार्ड़िंग के बारे में बात कर रही थी। उसने कुछ सुना था संजय के फोन पर।’

‘क्या सुना था?’

‘उसने ये तो नहीं बताया...’

‘और आपने पूछा भी नहीं?’

‘हाँ मैंने पूछा था....’ वो हडबड़ा सी गयीं। ‘हर बार उसने बात टाल दी। अब या तो समस्या बहुत छोटी थी या बहुत बड़ी, इसलिए वो बाँट न सकी।’

उनकी बातों में सिवाय उलझन के कुछ नहीं मिल रहा था। सब कुछ और ज्यादा उलझता जा रहा था। मैं जानता था कि ये कहाँ सुलझ सकता है और इसलिए तुरन्त वार्ड से बाहर आ गया।

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