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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

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अपनी टाई ढीली करते हुए मैंने बैडरूम की लाईट आन की। आँखों में नींद भरी थी और पूरे शरीर में थकान। इस रात मैं संजय के घर खाने पर आमन्त्रित था क्योंकि आज से 45 दिन पहले जिया ने एक बेटे को जन्म दिया था। ये एक छोटा सा फैमिली फंग्शन था जिसमें संजय के कुछ कुछ गिने चुने लोग ही दिखायी दिये थे। करीब एक घन्टे तक अपने छोटे से भतीजे को गोद में लिये रहा। वो इतना नन्हा सा होने पर भी मुझे पहचानता था। मेरी गोद में आकर हँसने लगता। कितना अलग एहसास होता था जब उसके छोटे से हाथों के बीच मेरी कोई उँगली रह जाती। उसकी काजल से भरी काली आँखों में मुझे अपनेपन का एहसास दिखायी देता। जब उसके छोटे से हाथों को मैं अपने चेहरे पर महसूस करता। मैं फिर मुस्कुरा गया।

मैंने थकान के चलते जूते तो किसी तरह उतार लिये लेकिन कपड़े नहीं बदल पाया और वैसे ही बिस्तर पर गिर गया। आँखें बन्द की ही थीं कि मेरे सेलफोन की झनझनाहट ने मुझे चौंका दिया। मेरा फोन अब तक मेरी पेन्ट की जेब में ही था। मैंने बाहर निकाला। जिस नम्बर पर कॉल आ रही थी वो मेरा कॉमन नम्बर नहीं था। मेरे परिवार के अलावा सिर्फ संजय के ही पास था।

सन्देह के साथ मैंने कॉल उठायी और मेरे हैलो बोलने से पहले ही-

‘हैप्पी बर्थ डे अंश!’ मैंने ऊँची और खुशी से भरपूर एक आवाज सुनी।

‘सोनाली?’ अनायास ही मैंने हँसते हुए सिर पकड़ लिया। मैंने तारीख चैक की। 23 मार्च... उफ!

हर साल ये दिन मुझे या तो प्रीती याद दिलाती थी या मेरी बहनें लेकिन पिछले कुछ महीनों से उनमें से कोई भी मेरे टॅच में नहीं था सो मुझे भी याद नहीं रहा। जब तक सब साथ थे तब तक पता ही नहीं चला कि उनसे कितनी दूर हूँ मैं और जब वो साथ नहीं रहे तो उस कमी के एहसास से हर रोज गुजरने लगा।

ना जाने कितनी ही बार मैं शिमला के नम्बर पर कॉल कर चुका था लेकिन उस कॉल पर कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी। बस उन सब की आवाज सुनकर मैं कॉल काट देता। आखिर उन्हें कहता भी तो क्या? मैं गुनहगार था उनका। मैंने अपने अकेलेपन के साथ रहना ही स्वीकार कर लिया।

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