लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट

फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

347 पाठक हैं

जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

48

और एक शाम :


अपने बैडरूम के एक कोने से दूसरे तक मैं उसके कदमों के पीछे-पीछे चल रहा था। उसके हाथों से कपड़े छीनता, वापस कवर्ड में रख देता और फिर उन्हें निकाल लाती। वो क्यों जा रही थी ये मैं अच्छे से समझता था लेकिन किसी भी बेकार सी वजह को हमारे प्यार की कमजोरी बनाये। मैं लगातार उसे समझा रहा था लेकिन वो जैसे सुन ही नहीं रही थी मुझे।

‘यामिनी प्लीज, ये पैकिंग करना बन्द करो ! मैं जानता हूँ कि तुम यहाँ रहना चाहती हो मेरे साथ! ‘ मैंने उसके हाथ से सूटकेस छीन लिया।

‘नहीं, मैं ऐसा कुछ नहीं चाहती अंश, तुम बेकार की अटकलें मत लगाओ।’ उसने मेरे हाथ से वापस छीन लिया। उसका चेहरा किसी मरे हुए इन्सान सा था उस वक्त, किसी एहसास, किसी दर्द, किसी आँसू का कोई निशां नहीं था उसमें। बस एक कठोरता थी जो शाम के अन्धेरे के साथ धीरे-धीरे बढ रही थीं। लग रहा था जैसे वो अपनी ही जान लेने वाली हो।

‘यामिनी मैं कोई अटकल नहीं लगा रहा हूँ, मैं जानता हूँ कि तुम्हारी खुशी मेरे साथ है। तुम्हें भी उतनी ही तकलीफ हो रही है जितनी मुझे! फिर क्यों कर रही हो ऐसा?’ मैं कमजोर पडने लगा।

‘मैं हर बार तुमको नहीं समझा सकती अंश! मेरे पास शब्द नहीं हैं!’

शब्द मेरे पास भी नहीं थे और होते तो भी मैं शायद उनको कह नहीं पाता क्योंकि ये वो यामिनी थी ही नहीं जो अब तक मुझसे प्यार किया करती थी। ये तो कोई ...अजनबी थी।

प्यार! सिर्फ एक एहसास, सिर्फ एक लफ्ज, एक सोच और ये हमें किस हद तक तोड़ कर रख देती है। यकीन नहीं होता।

जिस लड़की को कुछ दो तीन साल पहले मैं जानता तक ना था वो अब मेरे लिए मेरी अपनी जिन्दगी से भी बढ़कर हो गयी थी। हम अपने ही एहसासों के सामने इतने बेबस क्यों पड जाते हैं?

बाहर बैठक में सोफे पर ढला सा बैठा मैं अपने आप से ये सवाल कर रहा था कि वो अपने सामान के साथ बाहर आ गयी। उसे जाते हुए मैं देख नहीं पा रहा था।

मैं बस जमीन पर आँखें गड़ाये खामोशी से सोफे पर बैठा रहा। उसे जाते हुए देखना वैसा ही था जैसे खुद को जिन्दा ही आग में झोंक दिया हो। इस तकलीफ को दबाने के लिए मैंने हाथ में एक ब्लेड पकड़ रखा था जिसे मैं उसके हर कदम पर, अपनी उँगली और हथेली के बीच भींचता जा रहा था। मैं कोशिश में था कि उतना ही कठोर बन सकूँ जितना कि वो खुद थी लेकिन जैसे ही उसने दरवाजे को छुआ, मेरा सब्र टूट गया!

एक पल में मैं उसके और दरवाजे के बीच था! प्यार कभी हार क्यों नहीं मानता?

अब मैं एक भी शब्द कहने-सुनने की हालत में नहीं था। बस खामोशी से मैंने उसका हाथ अपने सीने पर रखा, जहाँ उसे मेरे दिल की टूटती हुई सी धडकनें सुनायी देतीं। अपनी भींगी आँखों से मैं उसकी आँखों में झाँक रहा था, सोचा शायद अब उसे कुछ समझ आ जाये लेकिन वो नहीं रुकी।

जब वो आयी थी तो मैंने बड़ी खुशी से बाँहें फैलाकर, गले लगाकर, उसे अपनी जिन्दगी में और घर में जगह दी थी और जब वो गयी तो उससे एक अच्छी खासी बहस हुई, झगड़ा हुआ। इससे उसके जाने का एहसास और भी बुरा हो गया, लगा जैसे जिन्दगी किसी बर्बाद मंजर पर खत्म हो गयी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book