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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'अच्छा, जाने दो। मैं भी कितनी दूर की सोचने लगा! आओ, कहीं घूमने चलें!' विनोद ने बात बदलते हुए हाथ का सहारा देकर माधवी को कुर्सी से उठाया। वह कपड़े बदलने को भीतर चली गई।
थोड़ी देर बाद दोनों टहलते हुए झील के किनारे की ओर हो लिए। केथू वाले चोर-मार्ग पर वे एक लड़की को खड़ा देखकर सहसा ठिठक गए। निकट आकर उन्होंने ध्यानपूर्वक देखा-लड़की कोई पहाड़ी युवती थी जो वहाँ की अन्य लड़कियों से कुछ अधिक सुन्दर थी। विनोद ने सन्देहशील दृष्टि से उसे देखते हुए पूछा- 'कौन हो तुम?'
लड़की कुछ सहम गई और घबराकर उनकी ओर देखने लगी। उसकी इस घबराहट को देखते हुए माधवी उसके पास आई और बड़ी नम्रता से सम्बोधित कर पूछने लगी-'तुम कौन हो?'
'रजनिया।'
'कौन रजनिया?'
'केथू की बहन।'
'यहाँ क्या कर रही थी?'
'भैया के लिए रोटी लाई थी।' उसने हाथों में छिपाई हुई गठरी को दिखाते हुए कहा।
'ओह...डरो नहीं, हम तुम्हारे भैया के मित्र हैं। देखो, उस सामने वाले बँगले में रहते हैं...ज़रूर आना।'
उसने सिर हिला दिया और अपनी घबराहट को मुस्कराहट में छिपाने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगी। वे दोनों उसके मुख को देखते हुए फिर टहलने लगे।
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