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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'मेरा अभिप्राय आपके मिशन से है जो रुपये और सुविधाओं का लालच देकर अपढ़ और विवश लोगों को अपनी जाति, धर्म से विमुख कर रहा है। उन्हें ऐसी सभ्यता में खींच रहा है जो उनकी पुरातन सभ्यता को समाप्त कर देना चाहती है।'

'मिस्टर मुखर्जी, आप शायद यह भूल रहे हैं कि आप कंपनी के नौकर हैं, इन लोगों के कौमी नेता नहीं।'

'परन्तु एक मानव जरूर हूँ जो मानवता का खून होता नहीं देख सकता।'

'धर्म में कोई जबरदस्ती नहीं। हमारा मिशन तो उन्हें मानवता का मार्ग दिखाना चाहता है, उन्हें इस योग्य बनाना चाहता है, कि वे अपना भला-बुरा स्वयं सोच सकें और मुक्ति का कोई निश्चित मार्ग चुन सकें, धर्म कोई भी हो।' सभापति ने समय की सूक्ष्मता और बढ़ते हुए वाद-विवाद को अनुभव करते हुए कुछ नम्रता से कहा।

'परन्तु उन्हें इस उजाले से पहले पेट के लिए रोटी, शरीर के लिए कपड़ा और रहने के लिए साफ-सुथरे मकान की आवश्यकता है।'

'आप शायद भूल रहे है कि मिशन और कम्पनी ने मिलकर उनके लिए कपड़ों की व्यवस्था करने के लिए पाँच हज़ार रुपया देना स्वीकार किया है।'

'जी, मैं जानता हूँ-और कल गिरजे के बाहर उन दुखियारों में यह कपड़े बाँटे जाने वाले हैं...परन्तु उन्हें भीख नहीं चाहिए, श्रम के पैसे चाहिए।'

विनोद ने बड़े गौरव से सिर उठाकर सभापति को उत्तर दिया और बिना कुछ सुने कमरे से बाहर चला गया। मीटिंग में खलबली-सी मच गई। उसके कानों में बाहर तक उनकी मिली-जुली आवाज़ों की भनक पड़ती रही।

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