ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
सब लोगों ने उसके विचारों का समर्थन किया और उसके बताए मार्ग पर चलने की सौगन्ध उठाई। वातावरण उसकी जय-जयकार से गूँज उठा। यों प्रतीत होता था मानो विनोद को राजतिलक लगाया जा रहा हो और प्रजा हर्ष-ध्वनि से उसका अभिनन्दन कर रही हो।
दूसरे दिन कम्पनी-कार्यकारिणी-समिति की बैठक थी। विनोद उसमें बुलाया गया। उसका रात में उन लोगों के नाच-रंग में सम्मिलित होना छिपा न रह सका। यह बात कम्पनी के अफसरों तक पहुँच चुकी थी। इस बात का उन्होंने बुरा मनाया और उसे भविष्य में ऐसे समारोहों से दूर रहने की चेतावनी दी। विनोद ने उनकी बातों का कोई उत्तर न दिया और जब सब अपनी-अपनी कह चुके तो उसने सभापति के सम्मुख उन लोगों की माँग रख दी। वह उनका वेतन बढ़ाना और उनके रहन-सहन में कुछ और सुविधाएँ देना चाहता था।
'परन्तु यह आप क्योंकर कह सकते हैं कि हम सदा उनसे कठोर व्यवहार करते आए हैं?' विलियम ने बीच में बोलते हुए पूछा।
'मैं ऐसा कब कहता हूँ? मैं आप लोगों के कठोर व्यवहार के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा रहा, मैं उनकी अति दुखी और दीन दशा देखकर उनकी आवाज़ आप तक पहुँचाने आया हूँ।'
'आप यदि चाहते हैं कि एक दिन में पशु को इन्सान बना दिया जाए, तो यह असम्भव है। आप शायद नहीं जानते कि मिशन की ओर से इनकी गिरती हुई दशा को सुधारने और इन्हें ऊँचा उठाने के लिए कितनी सहायता मिल रही है।'
'यह मैं जानता हूँ। किसी की दरिद्रता और गरीबी का लाभ उठाकर आप जाति और उसके धर्म को बदल डालोगे; परन्तु इससे उसके पेट की भूख का कोई उपाय न होगा और आपको यह जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए।'
'जबरदस्ती कैसी?' सभापति ने मेज़ पर हाथ मारते हुए पूछा।
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